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दान आदि सत्कृत्य परलोक में समृद्धि के लिए करते हैं। यदि निष्फल है तो कौन ऐसा मूर्ख होगा जो दान-धर्म आदि करेगा।' वेदवाक्यों के सम्यक अर्थों से वैसादृश्य की सिद्धि
सादृश्य समर्थक एकान्तवादी यदि वेदों का उध्दरण देकर कहें कि- इहभव से परभव में विचित्रता नहीं होती है, तो उन्ही वेदवाक्यों से वैसादृश्य को समर्थन मिलता है। - जैसे श्रृगालो वै एष जायते यः सपुरिषो दह्यते” अर्थात् जिसे मल-मूत्र सहित जलाया जाता है, वह श्रृगाल बनता है। इससे यह सिद्ध होता है कि पुरुष मरकर श्रृगाल (तिर्यञ्च) बन सकता है। कुछ और भी वेदवाक्य है - जैसे "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" स्वर्ग का इच्छुक अग्निहोत्र (यज्ञ) करें। सादृश्य मानने वालों को तो यह तथ्य ठीक नहीं लगता है। और भी "अग्निष्टोमेन यमराज्यमभिजयति"। अर्थात् अग्निष्टोम से यमराज्य पर विजय प्राप्त करता है। उनके अनुसार तो मनुष्य मरकर श्रृगाल या देव नहीं
बन सकता।
सादृश्य का समर्थक जो पद है कि "पुरुषौ वै पुरुषत्वमश्नुते पशवः पशुत्वम्" अर्थात् 'पुरुष मरकर पुरुष होता है, तथा पशु मरकर पशु होता है। किन्तु वे इस पद का सही अर्थ नहीं जानते है, इसका अर्थ यह है कि जो मनुष्य इस भव में सज्जन या सरल प्रकृति का होता है, विनयी, दयालु तथा अमत्सरी (ईर्ष्यारहित) होता है, वह मनुष्य नामकर्म तथा मनुष्यायु कर्म का बन्ध करता है। उस बन्ध के फलस्वरूप पुनः मनुष्य रूप में जन्म लेता है। तथा जो इस भव में माया या कपट व्यवहार करते हैं वे तिर्यंञ्च नामकर्म तथा तिर्यंञ्चायु, का उपार्जन करते हैं तथा पुनः परभव में पशुरूप में उत्पन्न होते है। इन बातों का ही वेदों में उल्लेख किया है।
जैनदर्शन में भी यह बताया है कि नरक, तिर्यंञ्च, मनुष्य और देवगति योग्य जीव जैसे कर्म बन्धन करेगा उसे वैसी ही गति मिलेगी। इस प्रकार जीव की गति कर्मानुसारी है। श्रमण भगवान महावीर ने सुधर्मा स्वामी की शंका का सयुक्तिक समाधान
' को सबधेव सरिसाऽसरिसो वा इहभवे परभवे वा।
सरिसासरिसं सव्वं णिच्चणिच्चातिरुवं च।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1796 २ (क) गणधरवाद, वही, पृ. 101 (ख) तस्माद् विचित्रादिह कर्मणो वै
विचित्रयोनिभ्रमणं सुसिद्धम्।। महावीर देशना, श्लोक १, पृ. 166
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