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________________ हेतुओं से कर्म-परिणाम विचित्र बनता है। इसी कारण उसका कार्य भी विचित्र हो जाता है। अतः परभव में एकान्त सादृश्य सिद्ध नहीं होता, बल्कि वैसादृश्य भी सम्भव है।' जैसे नाटक के पात्र अपनी भूमिका के अनुरूप कभी राजा तो कभी रंक आदि के विविध वेषों को धारण करके रंगमंच पर उपस्थित होते हैं, और तदनुरूप कार्य का प्रदर्शन करते है। उसी प्रकार संसार रूपी रंगमंच पर भी सभी संसारी जीव अपने अपने कर्म के अनुसार कभी नारक शरीर कभी देव, मनुष्य अथवा तिर्यंच शरीर को धारण करके परिभ्रमण करते हैं। यह बात प्रत्यक्ष है। सशरीरी जीव विसदृश्य हैं और इसी विसदृश्यता का कारण कर्म है। कर्म के कारण जीव नाना शरीर रुपों को धारण करते हैं।' अनेकान्तवाद से वैसादृश्य- जैन दर्शन एकान्तवादी नहीं है, वह अनेकान्त वाद को मानता है, अतः अनेकान्तवाद की दृष्टि से कोई भी पदार्थ एकान्तरूप से सदृश्य (समान) नहीं है, और एकान्तरूप से विसदृश्य भी नहीं है, क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु का जो रूप पूर्वकाल में रहता है उत्तरकाल में उससे विलक्षण हो जाता है। जैसे सुवर्ण द्रव्य है, वह हार के रूप में है, उसका विनाश कर के मुकुट के रूप में बनाया जा सकता है। जैसे स्वयं पुरुष जीवन में पर्यायें बदलती रहती है- बालक, युवा और वृद्ध पर्याय । इन पर्यायों में समानता नहीं है, किन्तु सत्तारूप से समान है। उसी प्रकार आत्मा सत्ता रूप से समान है, किन्तु देवत्व, मनुष्यत्व पर्यायों से असमान है। जैसे कोई व्यक्ति मरकर देव बनता है, तब सत्वादि धर्मों के कारण, तथा समस्त विश्व के साथ उसकी समानता है, किन्तु देवत्वादि धर्मों के कारण पुर्वावस्था से असमानता है। उसी प्रकार मनुष्य जीव रूप से नित्य है किन्तु मनुष्यादि पर्याय रूप से अनित्य है। एकान्त रूप से सादृश्य मानने पर भी परभव में जाति का अन्वय नहीं होता। और यदि जाति समान ही रहती है तो समान जाति में जो उत्कर्ष अपकर्ष दिखाई देता है, वह घटित नहीं होगा। जैसे जो यहां धनवान है, वह परलोक में भी धनवान होगा, और जो यहां निर्धन है वह परलोक में भी निर्धन होगा। उत्कर्षापकर्षन मानने से दानादि क्रिया निष्फल हो जायेगी। पर दान आदि क्रियाओं को निष्फल नहीं मान सकते, क्योंकि मानव अह वि सभावो धम्मो वत्थुस्स ण सो वि सरिसओ णिच्चं। अप्पाय-ठिईभंगा, चित्ता जं वत्थुपज्जाया।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा, 1792 महावीर देशना, श्लोक 10, पृ. 167 261 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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