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है, जिससे समान भव होता है, तो स्वभाव का स्वभाव विसदृश्य भव उत्पन्न करने का भी हो सकता है।
स्वभाव यदि मूर्त है, तो कर्म भी मूर्त है, उन दोनों में क्या भेद है? भेद मात्र नाम का है। स्वभाव परिणामी होने के कारण दूध के समान सदा एक समान रुप में नहीं रह सकता, अथवा बादलों के समान मूर्त होने के कारण एक जैसा नहीं रहता। तथा यदि अमूर्त है तो वह उपकरण रहित होने से शरीर आदि कार्यों का उत्पादक नहीं हो सकता। जैसे कुम्भकार दण्डादि उपकरण के बिना घड़े का निर्माण नहीं कर सकता वैसे ही स्वभाव भी आकाशवत् साधनहीन होने से किसी का कर्ता नहीं हो सकता।'
स्वभाव को निष्कारण मानने पर भी परभव में सादृश्य कैसे होगा। यदि सादृश्य का कोई कारण नहीं है, तो वैसादृश्य के लिए भी कारण की आवश्यकता नहीं है। शरीरादि की उत्पत्ति कारण विहीन होती है तो खरविषाण की भी उत्पत्ति हो सकती है। बिना कारण के शरीर का आकार कैसे होगा? तथा कारण के अभाव में भव का विच्छेद ही क्यों नहीं हो जाए? स्वभाव को निष्कारणता मानने से कई प्रश्न उपस्थित होते हैं, अतः स्वभाव कारण सहित है, निष्कारण नहीं है।
___ यदि स्वभाव को वस्तु का धर्म मानते है तो वह सदा एक समान नहीं रह सकता, क्योंकि वस्तु की पर्यायें बदलती रहती है, कहा भी है – “उत्पाद-व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्” पदार्थ में तीनों गुण रहते है, उत्पत्ति, स्थिति, विनाश। अतः उनका परिणमन प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध है। स्वभाव आत्मा का धर्म हैं या पुद्गल का। यदि वह आत्मा का धर्म है, तो आकाश के समान अमूर्त होने से शरीरादि का कारण नहीं बन सकता है। क्योंकि शरीर मूर्त है, अमूर्त मूर्त का जनक नहीं हो सकता।यदि पुद्गल का धर्म माने तो वह कर्म का दूसरा नाम हो सकता है, क्योंकि कर्म पुद्गलास्तिकाय में समाहित है। मूर्त कर्म ही मूर्त शरीर को उत्पन्न करने वाला है। कर्म विचित्र परिणति वाला है, मिथ्यात्व आदि
स्वभावतः एवायं स्वभावः सदृश इति चेत, ननु भव विसदृशतायां अपि एवद वस्तुं शक्यत एवेति।। विशेषावश्यकभाष्य, टीका, पृ. 754 सो मुत्तोऽमुत्तो वा जति, मुत्तो तोण सबधा सरिसो। परिणामत्तो पायं पिवणदेहहेतु जति अमुत्तो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा, 1789 अहवाऽकारणत्तोच्चिय संभावत्तो तो वि सरिसत्ता कत्तो। किमकारणत्तो ण भवे विसरिसत्ता किं व विच्छितो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1791
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