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3. सुधर्मा- परभव का हेतु कर्म को नहीं मानकर स्वभाव को भी तो मान सकते है। जैसे - बिना कर्म के मिट्टी के पिण्ड से घट का निर्माण स्वभावतः होता है, वैसे ही जीव की सदृश्य जन्म-मरण परम्परा स्वभाव से हो सकती है।
कोई भी वस्तु केवल स्वभाव से उत्पन्न नहीं होती, उस वस्तु की उत्पत्ति के लिए कर्ता-करण आदि (उपकरण सामग्री) की अपेक्षा रहती है। जैसे- मिट्टी का स्वभाव घड़ा बनना है, पर वह स्वयं तो घडा नहीं बन जायेगा, घड़े रूप में लाने के लिए कुम्भकार और चक्र की सहायता आवश्यक है। इसी प्रकार जीव को परभव में जाने के लिए तथा शरीर के निर्माण के लिए करण की आवश्यकता है। वह करने वाला ही कर्ता है।'
यदि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष की समस्या हो कि जैसे- घडे आदि बनाने में कुम्भकार, चक्र आदि कर्ता और करण प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, किन्तु शरीरादि कार्य तो प्रकृतिजन्य है, जैसे बादलों का स्वभाव है - बनना और बिखरना। अतः शरीर के निर्माण में “कर्मरूप" करण की आवश्यकता नहीं हैं।
यह समस्या युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि शरीर अप्रत्यक्ष नहीं है, बल्कि वह सादि है तथा निश्चित आकार वाला है साकार का कर्ता और करण आवश्यक है। जबकि बादलों में जो विकार है वे पुद्गल जनित है, अतः शरीर आदि कार्य को स्वाभाविक नहीं माना जा सकता।
भगवान महावीर ने स्वभाववाद का निराकरण इस प्रकार किया :
स्वभाव क्या है? वह कोई वस्तु है या प्रयोजनहीन (निष्कारणता) है, अथवा किसी वस्तु का धर्म है?
स्वभाव को वस्तु विशेष माने पर उसकी उपलब्धि या प्रमाण होना अनिवार्य है। जबकि वह आकाश कुसुम के समान अनुपलब्ध है। यदि अनुपलब्ध को स्वीकार करते हैं तो फिर कर्म को भी स्वीकार कर सकते हैं। यह कल्पना करें कि स्वभाव का ही दूसरा नाम कर्म है। स्वभाव का स्वभाव भी हमेशा एक जैसे रहने का है, वह हमेशा सदृश रहता
कम्माभावे वि मती को दोसो, होज्ज जति सभावोऽयं।
जध कारणानुरुवं, घडातिकज्जं सभावेणं।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1785 ' होज्ज सहावो वत्थु, णिक्कारणया व वत्थु धम्मो वा।
जइ वत्थु णत्थि, तओऽणुवलध्दीतो खपुफ्फं व।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1786 'कम्मरस वाभिहाणं हेतु सभावो त्ति होतु को दोसो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1788
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