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________________ यह मान्यता कि जो जीव इस लोक में जैसा है वह वैसा ही परलोक में भी होगा, तो कुछ अर्थों में युक्तिपूर्ण है, क्योंकि जीव इस भव में जैसी शुभाशुभ विचित्र क्रिया करते हैं, विचित्र कर्म करते है, उसी के अनुसार ही परभव में विचित्र फल मिलते है। जीव अनेक प्रकार के कर्मबन्धन करता हैं, कोई यदि नारक योग्य कर्मबन्धन करता है या देव गति के योग्य कर्म का बन्धन करता है, उस जीव को वैसा ही फल मिलता है। तब यह कहा जा सकता है कि इस लोक में उन्होंने जैसी क्रिया की, या कर्म की विचित्रता थी,, वैसी ही जीवों की विचित्रता परलोक में होती है, एक तरह से यह कथन सही है कि जो इस भव में जैसा कार्य होता है, परलोक में उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। जैसे को तैसा।' इस पर सुधर्मा ने यह शंका व्यक्त की कि - 1. इस भव में ही जिसका फल मिलता है वही कर्म सफल है। जैसे कृषक खेती करता है तो उसका फल उसे उसी भव में ही मिल जाता है, किन्तु पर भव के लिए जो दानादि कर्म करते हैं उसका कुछ भी फल इस भव में नहीं मिलता है। अतः परभव में भी विचित्रता का कोई कारण नहीं रहेगा। फलस्वरूप इस भव में जीव मनुष्यादि के रूप से जैसा होगा, वैसे का वैसा वह परभव में रहेगा। उसमें वैसादृश्य का अवकाश नहीं रहता। 2. इस शंका का समाधान श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार किया : परभव में जीव की उत्पत्ति का कारण कर्म है। यदि कर्म को नहीं मानते हैं तो निष्कारण की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, किन्तु उत्पत्ति कारण के अभाव में नहीं होती। यह माने कि दानादि क्रिया परलोक में असफल होगी तो वस्तुतः कर्म का अभाव होगा, कर्म के अभाव में परलोक की सत्ता ही नहीं रहेगी, फिर सादृश्य का प्रश्न ही नहीं हो सकता। कर्म के अभाव में मोक्ष भी निष्कारण मानना पडेगा, और मोक्ष के लिए किये जाने वाले धर्म-ध्यान, व्रत-तप, अनुष्ठान आदि व्यर्थ ही सिद्ध होंगे, तथा जीवों की विचित्रता को भी निष्कारण ही मानना होगा, यह सारी समस्या कर्म के न मानने से उत्पन्न होगी।' ' अहवा इहभवसरिसो, परलोगो वि जति सम्मतो तेणं। कम्मफलं पि इहभवसरिसं, पडिवज्ज परलोए।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1781 - किं भणियमिह मणुया, नाणागइ कम्मकारिणो संति। जइ ते तफ्फलभाजो पवे वि तो सरिसत्ता जुत्ता।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1782 कम्माभावे वि कत्तो, भवंतरं सरिसत्ता व तदभावे। णिक्कारणत्तो य भवो जति तो णासो वि तथ चेव।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1784 258 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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