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कषाय : जीवों के क्रोध-मान-माया-लोभरूप चार कषायों की मात्रा में जो अन्तर पाया जाता है, वह कर्म के कारण है। ज्ञान : एक जीव को पूर्ण ज्ञान है तो दूसरे को मात्र मतिश्रुतज्ञान है, कई जीवों में अज्ञान की मात्रा अधिक है, इन सबके मूल कारण जीवों के अपने अपने कर्म ही
संज्ञा : चार संज्ञाओं में से किसी जीव में आहार संज्ञा अधिक और किसी में भय
या मैथुन संज्ञा अधिक या कम दिखाई देती है। 9. संयम : संयम अर्थात् पाँचों इन्द्रियों पर नियंत्रण। संसार में कई जीव ऐसे हैं,
जिनका इन्द्रियों पर कोई नियंत्रण नहीं है, कुछ जीव संयमी हैं। यह तारतम्य
कर्मों के कारण है। 10. दर्शन : पदार्थ के सामान्य अंश को निर्विकल्प रूप से ग्रहण करना। चतुरिन्द्रिय
और पंचेन्द्रिय जीवों के चक्षुदर्शन होता है, व एकेन्द्रिय से त्रीन्द्रिय तक के जीवों में दर्शन नहीं होता है। दर्शन की विभिन्नता का कारण कर्म के क्षय, या क्षयोपक्षम से है। . लेश्या : लेश्या से आत्मा कर्मों से श्लिष्ट (लिप्त) होती हैं। आत्मा के जैसे परिणाम होते है, वैसी लेश्याएं होती जाती है। किसी जीव मे कृष्ण नील, कापोत की अधिकता, तो किसी में पद्म शुक्ल लेश्या की अधिकता होती है।
भव्य : जिस जीव में मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता हो, उसे भव्य कहते है, तथा जिसमें __ योग्यता न हो, वह अभव्य कहलाता है। जहाँ कर्मों की प्रचुरता होती है वह जीव
अभव्य ही बना रहता है, तथा कोई कर्मों के क्षय-क्षयोपक्षम से भव्य होता है। सम्यक्त्व : सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भी कर्मकृत विभिन्नताएं पायी जाती
13.
14. आहार : आहार - अनाहार से भी जीवों की कई विभिन्नताएं बनती है।'
इस प्रकार इन 14 द्वारों को लेकर जीवों की विभिन्न स्थितियाँ होने का मूलकारण कर्म है। विचित्रता का कारण कर्म है, यह सिद्धान्त स्पष्ट होता है।
'कर्मविज्ञान, भाग 1, वही, पृ. 121-128
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