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वृत्तियों के वैविध्य का वर्णन किया गया है। इस प्रकार स्थानांग सूत्र में जीवन के समग्र पहलुओं पर प्रकाश प्रक्षिप्त किया गया है।
समवायांगसूत्र
समवायांग भी जैन सिद्धान्त का विशिष्ट कोष है। सामान्य स्तरीय जनता को जैनधर्म से सम्बन्धित विषयों का बोध इसके द्वारा हो जाता है। इसमें जीव-अजीव प्रभृति पदार्थों का विवेचन या समवतार है, अतः इस आगम का नाम समवाय है।'
आचार्य देववाचक ने समवायांग की विषयवस्तु को इस रुप में प्रस्तुति दी है -
1. 2. 3.
जीव, अजीव, लोक, अलोक एवं स्वसमय, परसमय का समावेश। एक से लेकर शत-सहस्र पर्यन्त की संख्या वाले विषयों का निरूपण। द्वादशांग गणिपिटक का परिचय।'
प्रस्तुत आगम में तीनों लोकों के जीव आदि समस्त पदार्थों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या तक परिचय दिया है। इसमें तीर्थंकर, गणधर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि से संदर्भित वर्णन के साथ-साथ अपेक्षा द्रव्य के रूप में जीव-अजीव, धर्म-अधर्म आदि का निरूपण किया है। क्षेत्र की दृष्टि से लोक, अलोक, सिद्धशिला आदि का तथा काल की दृष्टि से समय, आवलिका, मुहूर्त आदि से लेकर पल्योपम, सागरोपम और पुद्गलपरावर्तन पर्यन्त विचार किया गया है। भाव की विवक्षा से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य आदि जीव के भावों अर्थात मनोदशाओं तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श संस्थान आदि अजीव की विभिन्न अवस्थाओं का भी वर्णन किया गया
इस प्रकार समवायांग जिज्ञासुओं और अन्वेषणकर्ताओं के लिए शोधपूर्ण तथ्यों एवं महत्वपूर्ण कथ्यों का महतोमहियान निधान है। किं बहुना, यह वह आगमरत्न है जो वस्तुविज्ञान, जैनसिद्धान्त और जैन इतिहास की सुपाठ्य सामग्री से परिपूर्ण है।
। तिलकधर शास्त्री, जिनवाणी, आगम विशेषांक, वही, पृ. 142
समवायांगवृत्ति, पत्र 1 नन्दीसूत्र, सू. 83 श्री धरमचन्द जैन, जिनवाणी, वही, पृ. 142
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