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ये पाँच हेतु है, इनमें विचित्रता है। अतः कर्म भी विचित्र है, और कर्म रूपी बीज भी विचित्र है तो उसका भवांकुर भी विचित्र ही होगा।' अतः सिद्ध होता है कि जीव अपना आयुष्य पूर्ण कर अपने कर्मों के अनुसार नारक, तिर्यंच, देव अथवा मनुष्य के रूप में जन्म ले सकता है। आगमों में भी कहा है -
“एगया देवलोएसु, नरएसु वि एगया
एगया आसुर कायं, अहाकम्मेहिं गच्छइ ।" कभी देवलोक में तो, कभी नरक में तो कभी असुरजाति में जीव कर्मों के द्वारा गमन करता है।
जीव जब तक संसारी अवस्था में रहता है, तब तक वह नारकादि रूप में विचित्रता प्राप्त करता है, क्योंकि विचित्र कर्म का वह फल है। यदि हेतु विचित्र है तो फल भी विचित्र होगा। जैसे दो व्यक्ति है, वे कृषि अथवा व्यापारादि करते है, किन्तु दोनों की फल प्राप्ति में विचित्रता रहती है, वैसे कर्मफल में भी विचित्रता रहती है। “चित्ता कम्मपरिणईं।
पुद्गल का गुण है विचित्र रुप पैदा करना और मिलना बिखरना, तो कर्म भी पुद्गल है। जैसे आकाश में कई तरह के विकार देखे जाते हैं, तथा पृथ्वी में विचित्रता दिखाई देती है, क्योंकि वे सब पुद्गल रूप हैं, वैसे ही कर्म भी पुद्गल होने के कारण विभिन्नता लिए हुए है।
___ इस बात का प्रमाण कई शास्त्रों में मिलता है - मनुष्यों में शरीर, मन और बुद्धि आदि को लेकर असंख्य विभिन्नताएं है, जैनाचार्य देवेन्द्रसुरि ने कर्म की विचित्रता-विविधता का इस प्रकार उद्घाटन किया है – “राजा-रंक, सुन्दर-कुरूप,
' हेउविचित्तणओ, भवंकुर विचित्तया तेणं ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1777 2 जइ पडिवण्णं कम्मं हेउ विचित्ततओ विचित्तं च।
तो तप्फल विचित्तं, पवज्ज संसारिणो सोम्म ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1778 उत्तराध्ययनसूत्र, 3/2 चित्तं संसारितं, विचित्तं कम्म फल भावओ हेउ। इह चित्तं चित्ताण्णं, कम्माणं फलं व लोगम्मि ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1779
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