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________________ का बीज मनुष्य नहीं किन्तु उस का कर्म है" और वह कर्म विचित्र होता है। जब कारण ही विचित्र हो तो कार्य भी विचित्र ही होगा।' कर्म की विचित्रता के क्या कारण है? कर्म के पाँच हेतु है क. ख. मिथ्यात्व : सर्वज्ञ वीतराग प्रभु ने जीवादितत्वों, षद्रव्यों, तथा आत्मवाद, कर्मवाद, क्रियावाद, लोकवाद, मोक्षमार्ग आदि के विषय में व्यवहार निश्चय दृष्टि से जैसी प्ररूपणा की है, उसके विपरीत, अभिनिवेश एवं दुराग्रहपूर्वक एकान्त एवं प्रमाण नय निरपेक्ष कथन एवं श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन से जो विपरीत है, वह मिथ्या दर्शन कहलाता है। अव्रत : जहाँ विरति न हो, वहाँ अविरति है। विरति का अर्थ व्रत, प्रत्याख्यान, त्याग, नियम या संयम का स्वीकार तथा आचरण करना है। इससे विपरीत व्रताचरण नहीं करना अव्रत कहलाता है। “यथोक्ताया विरतेर्विपरीताऽविरतिः।" ग. प्रमाद : प्रमाद का अर्थ है आत्मविस्मरण। प्रमाद के कारण जीव आत्मा के स्वभाव-आत्मगुणों को भूलकर परभाव या विभाव में चला जाता है। इन्द्रिय विषयों के प्रति आकर्षित होकर व्रतबद्ध होते हुए भी परभावों के प्रवाह में बह जाना, वह प्रमाद कहलाता है। कषाय : कष् अर्थात संसार, आय-लाभ, जिससे संसार का लाभ हो, वह 'कषाय' है। जो आत्मा को मोह के शिकंजे में कशे, जकडे या दुःख दे वह कषाय है। कषाय आत्मा के शुद्ध स्वरूप को कलूषित करने वाला है। ङ. योग : पूर्व संचित कर्मविपाक के कारण बाह्य और आन्तरिक निमित्तों के मिलने पर आत्मप्रदेशों में जो स्पन्दन, उद्वेलन, हलचल या चंचलता होती है, उसे योग कहते हैं। 'जेण भवंकुरबीयं कम्म चित्तं चतं जतोऽभिहितं। हेतु विचित्तत्तणओ, भवंकुरविचित्तया तेणं ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1777 'तत्र सम्यग्दर्शनाद् विपरीतं मिथ्यादर्शनम्, कर्म की गति न्यारी, वही, पृ. 159 कर्मविज्ञान, भाग 4, पृ. 132-133 253 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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