SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह मान्यता भ्रमपूर्ण है, क्योंकि यह एकान्त नियम नहीं है कि जैसा कारण है वैसा ही कार्य हो, अर्थात कार्य कारण के सदृश्य ही हो। कहीं-कहीं विसदृश्य विचित्र भी देखा जाता है- जैसे कि वृक्षायुर्वेद में उल्लेख है कि गौ के रोमों से दूर्वा घास तथा शृंग से शरनाम की वनस्पति उत्पन्न होती है, उसी पर यदि सरसों का लेप किया जाए तो विशेष प्रकार की नयी घास उत्पन्न हो जाती है। इस प्रकार और दूसरे द्रव्यों के संयोग से विलक्षण प्रकार की वनस्पतियों की उत्पत्ति होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि कार्य कारण से बिलक्षण भी हो सकता है।' इस वाद का आधार वह वेदवाक्य है, किन्तु उस समय एक ओर चर्चा चल रही थी कि - कारण के सदृश कार्य होता है या नहीं? चार्वाक् असत्कार्यवादी है, वह कार्य को सदृश और विसदृश दोनों रुपों में मानता है, जैसे कि - चैतन्य कार्य को कारणों से विसदृश और भौतिक कार्यों को सदृश्य मानता है। वेदान्त और सांख्य दर्शन सत्कार्यवादी है, उनके मत से कार्य और कारण दोनों सदृश है, वेदान्त के अनुसार कार्य में कितनी ही विलक्षणता हो, किन्तु उन सबका समन्वय ब्रह्म में है और सांख्य मत से प्रकृति में हो जाता है। दोनों के मतानुसार क्रमशः ब्रह्म और प्रकृति से कार्य सर्वथा विलक्षण नहीं है। ब्रह्म एक होने पर भी कार्यों में जो विलक्षणता दिखती है, उसका कारण वेदान्त मतानुसार अविद्या है और प्रकृति एक होने पर भी कार्यों में जो विलक्षणता है, उसका कारण प्रकृति के गुणों का वैषम्य है। न्याय-वैशेषिक और बौद्ध दर्शन ये तीनों असत्कार्यवादी हैं, जिससे कारण से विलक्षण कार्य भी सम्भव है, तथा जैनदर्शन भी कार्य के कारण से सदृश और विसदृश्य दोनों रुपों में स्वीकार करते हैं। यदि कारण के अनुरूप कार्य माने तो भी भवान्तर में विचित्रता हो सकती है। यहाँ पूर्वभव का शरीर तथा स्त्री-पुरुष वेद आदि का कोई न कोई कारण होगा, वह कारण ही कर्म है, यह निश्चित है कि "जैसा कर्म वैसा फल"। “कम्माण फलं व लोगम्भि" भवांकुर (क) जाइसरो सिंगाओ, भूतणओसरिसवाणुलित्ताओ। संजायति गोलोमाऽविलोमसंजोगत्तो दुव्वा ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1774 (ख) केनापि योगेन हि ताममेतत्, स्वर्णत्वमायाति विलोकयत्वम्।। महावीर देशना, श्लोक 7, पृ. 165 252 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy