________________
और सादृश्यता का समर्थन करते है कि जिसका जैसा स्वभाव है वह वैसा ही रहेगा। जबकि कर्मसिद्धान्त का मानना है कि प्राणी जैसा कार्य करता है, उसे वैसा ही फल मिलेगा तथा विविधता व विचित्रता कर्म के कारण है। इस प्रकार सुधर्मा स्वामी के मन में एक संशय था कि - इहलोक में जीव जिस अवस्था में है, वह परलोक में भी वैसा ही रहेगा या परिवर्तन आयेगा? इस शंका का समाधान श्रमण भगवान महावीर ने कई युक्तियों से किया। 1. सुधर्मा स्वामी की शंका कि – कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता। जैसा
हेतु (कारण) होगा, वैसा ही कार्य होगा। जैसा बीज होगा, वैसा ही अंकुर उत्पन्न होगा। इसी आधार पर यह सिद्ध होता है कि जैसा पूर्वभव है वैसा ही उत्तरभव होगा, अर्थात् यदि यहाँ पुरुषवेद में है तो वह मरकर पुरुष ही होता है, स्त्री मरकर स्त्री ही बनती है। वेद में भी कहा है – “पुरुषो मृतः सन् पुरुषत्वमेवाश्नुते, पश पशुत्वम्।
यह भी मत था कि - कारण के अनुरूप ही कर्म होता है, जैसे कि बीज के अनुसार ही वृक्ष और फल उत्पन्न होते हैं, यथा – गेहूँ का अंकुर और उससे प्राप्त होने वाले गेहूँ दोनों बीज रुप गेहूँ के अनुरूप ही उत्पन्न एवं प्राप्त होते हैं। किन्तु यह कभी नहीं कहा या देखा जाता है कि नीम के बीज से आम्र वृक्ष उत्पन्न हो जाये और आम्रफल प्राप्त हो, इस लोक प्रचलित व्यवहार के कारण सुधर्मा जी के मन में निश्चित मत हो गया कि - परभव में भी जीव इस भव के जैसा होता है।
लोक में भी देखा जाता है कि - बीज के अनुसार ही वृक्ष और फल उत्पन्न होते है। जैसे गेहूँ का अंकुर और उससे प्राप्त होने वाले गेहूँ दोनों बीज रूप गेहूं के अनुरूप ही उत्पन्न एवं प्राप्त होते हैं। किन्तु यह कभी नहीं देखा जाता है कि - नीम के बीज से आम वृक्ष उत्पन्न हो जाये। इसलिए यह निश्चित है कि जीव जैसा इस भव में होता है, वैसा ही परभव में होता है। नाना प्रकार की वानस्पतिक औषधियों एवं भूमिज पदार्थों के योग से ताम्बा भी स्वर्ण रूप में परिवर्तित हो जाता है। इस शंका का समाधान श्रमण भ. महावीर ने इस प्रकार दिया :
कारण कज्जं, बीयस्सेववंकुरो ति मण्णंतो। इहभव सरिसं सव्वं, जयवेसि परे किं तुम जुत्तं ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1773
251
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org