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________________ योनि को प्राप्त करता है, इस पर गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है – “निकृष्ट कर्म करने वाले क्रूर, द्वेषी, और दुष्ट नराधमों को निरन्तर आसुरी योनियों में फेंकता रहता हूँ।" यदि मनुष्य को यह ज्ञात हो कि मैं मरकर पुन: मनुष्य ही बनूंगा तो वह गलत कार्य करने से नहीं हिचकिचाएगा। ___ इस प्रकार की चर्चाएं तत्कालीन वेदज्ञ ब्राह्मण सुधर्मा स्वामी के समय पर भी थीं। उनको जन्म-जन्मान्तर सादृश्य की धारणा थी। वे वेदवाक्य का अर्थ ऐसा करते थे कि "पुरुषो मृतः सन् पुरुषत्वमेवाश्नुते, पशवः पशुत्वम्” अर्थात् पुरुष मरकर परभव में पुरुष ही बनता है, पशु मरकर पशु ही होता है। कारण सदृश्य कार्य होता है, किन्तु वेदों में यह वाक्य सामने आया कि "श्रृगालो वै एष जायते यः स पुरिषो दह्यते”। जिसको मल सहित जलाया जाता है, वह मरकर श्रृगाल रुप में जन्म लेता है। इस प्रकार परस्पर विरोधाभासी विचारों से उनके मन में यह शंका हुई कि - जीव जैसा इस भव है वैसा ही परभव में होता है या नहीं? क्योंकि प्रथम वाक्य में सादृश्य की प्ररुपणा है तथा दूसरे में वैसादृश्य की विचारणा है, साथ ही यह भी मत था कि – जीव और पुद्गल (शरीर के रूप में) के अनादि संबंध के वर्तमान काल तक के घटना की संभावना पूर्वजन्म व पुनर्जन्म की अवधारणा के बिना संभव नहीं है। इसी पूर्वजन्म, वर्तमान योनि व पुनर्जन्म में प्राणी (जीव) के शारीरिक स्वरूप के बारे में दो मत उपलब्ध होते हैं (1) इहलोक-परलोक सादृश्य का मत व (2) इहलोक-परलोक में वैदृश्य की संभावना का मत। इस शंका का समाधान श्रमण भगवान महावीर ने युक्तिपूर्वक किया, जिसका तार्किक विश्लेषण जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद के अन्तर्गत किया। विशेष्यावश्यक भाष्य में सादृश्य और वैदृश्य की धारण और उसका निराकरण : ___ जगत की विविधता और विचित्रता का हेतु कर्मसिद्धान्त को माना गया है। कर्मवाद को मानने वाला ही परलोक को मानता है। प्रत्येक जीवात्मा का संसार-भ्रमण अनादिकाल से चला आ रहा है। जन्म-मरण का चक्र चलता जा रहा है, यह सब कर्माधीन है। स्वभाववाद को मानने वाले प्रत्येक कार्य को स्वभाव के अन्तर्गत मानते है ' गीता, 16/19 २ (क) यच्च श्रृगालो दह्यते वेदविहित तदपि परभव सदृशता ग्रहे सम्बद्धमेव स्यात् पुरुषादेमुत्र श्रृगालयानुपपत्ते। विशेषावश्यकभाष्य टीका, पृ. 738 (ख) यादृग् भवेत् कारणमत्र लोके, तादृग् हि कार्य परिणाम काले।। महावीर देशना, श्लोक 3, पृ. 163 250 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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