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षष्ठम अध्याय इहलोक का परलोक से सादृश्य या वैदृश्य समीक्षात्मक विवेचन
(स्वभाववाद की समीक्षा)
भूमिका
जीवन का जो स्वरूप वर्तमान में दिखाई पड़ रहा है, वह उतने तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसका सम्बन्ध अनादि भूतकाल और अनन्त भविष्य के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान जीवन तो उस श्रृंखला की एक कड़ी है। भारत के जितने भी आस्तिक दर्शन है, वे सब पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म की विशद चर्चा करते हैं। पुनर्जन्म एवं पूर्वजन्म को माने बिना वर्तमान जीवन की यथार्थ व्याख्या नहीं हो सकती।
प्रत्यक्षज्ञानियों ने पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के विषय में स्पष्ट उद्घोषणा की है। उसको माने बिना न आत्मा का अविनाशित्व सिद्ध होता और न संसारी जीवों के साथ कर्म का अनादि संयोग ही सिद्ध होता है।
___कर्म सिद्धान्त के अनुसार - वर्तमान में मनुष्य जैसी प्रवृत्तियाँ करता है, उसका परिणाम भविष्य में उसे उसी रूप में मिलेगा, चाहे वह आने वाले किसी जन्म में मिले। इस दृष्टि से 'कर्म' प्राणी जगत के साथ अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों कालों में अनुस्यूत है। किन्तु कुछ धर्म, दर्शन या मत-पन्थ इस मान्यता को स्वीकार नहीं करते है। चार्वाक आदि नास्तिक दर्शन कर्म के अस्तित्व को ही नहीं मानते है, तब फिर वे पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को कैसे स्वीकार करेंगे? कुछ मतवादी परलोक को स्वीकार करते है किन्तु वैसादृश्य को स्वीकार नहीं करते हैं, अर्थात उनका कथन है कि जीव जिस योनि से मरा है, वह पुनः उसी योनि में जायेगा। स्वभाववाद के अनुसार परलोक की सादृश्यता को मानते हैं, जबकि कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जीव जैसा कर्म करता है, वैसा फल पाता है। वैदिक धर्म के मुर्धन्य ग्रन्थ 'गीता' में स्थान-स्थान पर बताया है कि सुकर्म करने पर अच्छी योनि मिलती है और दुष्कर्मों के फलस्वरूप अगले जन्म में प्राणी निम्न गति और
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