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________________ सूत्रकृतांग सूत्र इसमें सूत्रों के द्वारा तत्त्वबोध सूचन किया गया है, एतदर्थ इसकी संज्ञा सूत्रकृत है। मौलिक दृष्टि से यह आगम भगवान महावीर से सूत अर्थात् उत्पन्न है तथा यह सूत्र रूप से गणधर के द्वारा कृत है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है। इस आगम में स्व समय और परसमय का वर्णन है। यह दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में 16 व द्वितीय श्रुतस्कन्ध में 7 अध्ययन हैं।' सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में अन्य मतों का निरसन किया गया है जैसे - पंचमहाभूत वाद का मत है कि - पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के शरीर रूप में परिणत होने के कारण चैतन्य की उत्पत्ति इसी से होती है, जिस प्रकार गुड-महुआ आदि के संयोग से मदशक्ति उत्पन्न हो जाती है। इस वाद का निरसन करते हुए कहा गया है कि शरीर के घटक रूप पंचमहाभूतों से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं होती, अचेतन गुण वाले पदार्थों के संयोग से चेतन गुण वाले तत्त्व की उत्पत्ति नहीं होती। __इसी प्रकार तज्जीव-तच्छरीरवाद अनात्मवाद का रूप है, जब तक शरीर है तब तक ही जीव है और शरीर के विनष्ट होने पर जीव भी नष्ट हो जाता है, पर यदि ऐसा संभव है तो ऐसी स्थिति में मोक्षप्राप्ति के लिए किये जाने वाले ज्ञान-दर्शन-संयम-व्रत आदि निष्फल हो जायेंगे। वेदान्तवादी ब्रह्म के अतिरिक्त सब पदार्थों को असत्य मानते हैं, यह एकात्मवाद है। सांख्य मतवादी आत्मा को अकर्ता मानते हैं। बौद्ध दर्शन का क्षणिकवाद यह मानता है कि पदार्थ हर क्षण बदलता रहता है। __ आजीविकों का सिद्धान्त नियतिवाद है, जिसमें उत्थान-बल, वीर्य आदि कुछ नहीं है सब भाव सदा से नियत है। अज्ञानवादी अज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं। जैन दर्शन इन सब मतों एवं वादों का संयुक्तिक निरसन करता है। मुख्य रूप से सूत्रकृतांग सूत्र का सार इन चार वाक्यों में समाहित है - 1. बन्धन के स्वरूप को जानो 2. बन्धन को तोड़ने का पुरुषार्थ करें अशोककुमार जैन, जिनवाणी, वही, पृ. 104 सूत्रकृतांगसूत्र, 1/1/11-12, पृ. 26 'सूत्रकृतांगसूत्र, मधुकरमुनि, वही, पृ. 25 वही, गा. 28, उद्दे. 12, पृ. 31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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