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'अस्थि मे आया' मेरी आत्मा है, वह पुनर्जन्म लेने वाली है, इस सूत्र में उसकी सम्पूर्ण विषय वस्तु का भाष्य होता है।
सूत्रकृत की दार्शनिकता तर्क प्रधान है, बौद्धिक है, जबकि आचारांग की दार्शनिकता अध्यात्म-प्रधान है। यह दार्शनिकता औपनिषदिक शैली में गुम्फित है, अतः इसका सम्बन्ध प्रज्ञा की अपेक्षा श्रद्धा से अधिक है। आचारांग का पहला सूत्र दर्शनशास्त्र का मूल बीज है - आत्मजिज्ञासा और इसके प्रथम श्रुतस्कंध का अन्तिम सूत्र है - भगवान महावीर का आत्म-शुद्धि मूलक पवित्र चरित्र और उसका आदर्श। आत्म-दृष्टि, अहिंसा, समता, वैराग्य, अप्रमाद, निःस्पृहता, निःसंगता, सहिष्णुता, आचारांग के प्रत्येक अध्ययन में इनका स्वर मुखरित है। आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध में मात्र श्रमण के आचार का प्रतिपादन ही नहीं है, बल्कि वह समत्व, अचेलत्व व मानसिक पवित्रता से ओत-प्रोत है। इस प्रकार यह सूत्र दर्शन, अध्यात्व व आचार की त्रिपुटी है।
___ इस आगम के प्रति अध्ययन में सम्यक्ज्ञान, सम्यकदर्शन और सम्यकचारित्ररूप मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन मिलता है, क्योंकि जीव जब आत्मा को सम्यक् रूपेण समझ लेता है तब वह उसे मुक्त करने के उपायों को सम्यक् प्रकार से जानने का सार्थक प्रयास करता है। और उसे संसार के प्रगाढ़ बन्धनों का परिज्ञान हो जाता है। तभी आचारांग सूत्र में निर्दिष्ट हैं - पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि, तुम स्वयं ही तुम्हारे मित्र हो, बाहर मित्र ढूंढने का प्रयत्न मत करो।
आचारांगसूत्र में समसामायिक धर्म साधना का व्यापक विवेचन है और जो भगवान महावीर के समत्वमूलक सिद्धान्त पर आधारित है। जितनी धर्म साधना उच्च वर्ण वाला व्यक्ति कर सकता है उतनी ही निम्न वर्ण वाला भी कर सकता है, उनका यह यथार्थ कथन प्रस्तुत सूत्र में निबद्ध है – “जहा पुण्णस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थइ ।
इस आगम का प्रत्येक सूत्र और प्रत्येक शब्द अपनी अर्थ विवक्षा से एक शास्त्र है। इसमें प्रतिपादित ध्यान, समाधि, अनुप्रेक्षा, भावना, अप्रमाद, कषायविषय, तितिक्षा, कर्मलाघव आदि ऐसे विषय हैं जिस पर चिन्तन करने से जीवन में दिव्यता, भव्यता का शताधिक स्वर्णिम प्रकाश प्राप्त होता है, जिससे व्यक्ति का व्यक्तित्व ज्येष्ठत्व एवं श्रेष्ठत्व के शिखर पर समारुढ़ हो जाता है।
' श्रीचन्द जी सुराणा, जिनवाणी, वही, पृ. 99
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