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इन द्वादश सूत्र को उपांग-श्रेणी में अन्तर्भाव कर लेने से अन्य आगमों की अपेक्षा इनका महत्त्व अधिक समझा जाता है।
सूत्रकृतांग
आचारांग प्रभृति आगम श्रुत पुरुष के अंग स्थानीय होने से ये अंग कहलाते हैं।' वे शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होने के कारण ध्रुव एवं शाश्वत माने जाते हैं। जैन परम्परा में ये गणिपिटक कहे जाते हैं। जब तक आचारांग आदि अंग साहित्य का निर्माण नहीं हुआ था, तब तक भगवान महावीर के पहले पार्श्वनाथ की परम्परा की श्रुत राशि चौदह पूर्व या दृष्टिवाद के नाम से जानी जाती थी। जब आचार प्रभृति ग्यारह अंगों का निर्माण हो गया तब दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थान दे दिया गया और पूर्व साहित्य को भी उसका ही अंग मान लिया गया।
आचारांग सूत्र
आचारांग में श्रमणाचार की आचार संहिता का प्रतिपादन किया गया है। आचार्य भद्रबाहु ने कहा - "अंगाणं किं सारो – आयारो।” समूचे अंग सूत्रों का सार आचारांग सूत्र है। इसमें आचार-विचार, ध्यान-समाधि आदि समग्र विषयों का चिन्तन बीज रूप में समाहित है। यही प्रमुख कारण है कि तीर्थंकर भगवान सर्वप्रथम आचारांग का और उसके पश्चात् शेष अंगों का प्रवर्तन करते हैं। यह आगम दो श्रुत स्कन्धों में विभक्त हैं - प्रथम श्रुत स्कन्ध में 9 अध्ययन है तथा द्वितीय श्रुत स्कन्ध पांच चूलिकाओं में विभक्त है, इनमें से चार चूलिकाएँ आचारांग सूत्र में हैं किन्तु पांचवी चूलिका अत्यधिक विस्तृत है, एतदर्थ आचारांग से पृथक् रूप में स्थापित है जो वर्तमान में निशीथसूत्र के नाम से जानी जाती
है।
आचारांग में मुख्यरूप से मूल्यात्मक चेतना की अतिशय अभिव्यक्ति है, इसका मुख्य लक्ष्य अहिंसात्मक समाज की संरचना के लिए व्यक्ति को प्रेरित करना है, जिससे समाज में सुख और शान्ति के बीज का वपन हो सके। आचारांगसूत्र में अध्यात्म की मूल नींव 'आत्मवाद', 'आत्मविवेक' और 'आत्मशुद्धि' के विविध अमोघ उपायों का वर्णन है - जैसे
' जैनागम मनन और मीमांसा, आचार्य देवेन्द्रमुनि, पृ. 11 ' आचारांग नियुक्ति, गाथा 16 ' आचारांग नियुक्ति, गाथा 8
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