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________________ का प्राबल्य होने के कारण गणधर व्यक्त की भूतों के अस्तित्व के सम्बन्ध में उठाई गई शंका का समाधान करते हुए भगवान महावीर के मुख से विज्ञानवाद और शून्यवाद दोनों की समीक्षा करवा दी गई। यद्यपि बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद - शून्यवाद का जन्म एक तार्किक विधा के रूप में चाहे परवर्ती काल में हुआ हो किन्तु महावीर और बुद्ध के काल में भी उच्छेदवाद और औपनिषदिक विज्ञानवाद तो उपस्थित था ही। उपनिषदों में 'सर्व खल्विंद ब्रह्म' के रूप में या 'विज्ञानधन' के रूप में जो अवधारणा प्रस्तुत की गई है उसके मूल में विज्ञानवाद के बीज छिपे हुए हैं, इसी प्रकार उस काल में जो उच्छेदवादी परम्परा थी उसे शून्यवाद का पूर्वरूप माना जा सकता है। यद्यपि शून्यवाद उच्छेदवाद नहीं, किन्तु वह इतना तो अवश्य मानता है कि वस्तु न तो शाश्वत है और न उच्छेद रूप है। । वस्तुतः बौद्धदर्शन में वैभाषिक, सौत्रान्तिक, विज्ञानवादी और शून्यवादी, जो चार सम्प्रदाय विकसित हुए, उनमें वैभाषिक बाह्यार्थ और उनका प्रत्यक्ष ज्ञान की संभावना को स्वीकार करते हैं। सौत्रान्तिक बाह्यार्थों की सत्ता तो स्वीकारते हैं किन्तु उनका प्रत्यक्षज्ञान सम्भव नहीं मानते। विज्ञानवादी इनसे भी एक कदम आगे बढ़कर यह कहते थे कि यदि बाह्यार्थ का ज्ञान संभव नहीं है तो उनकी सत्ता कैसे स्वीकारें, अतः उन्होंने बाह्यार्थ की सत्ता का निषेध कर दिया। वस्तुतः विशेषावश्यकभाष्य में व्यक्त की जो शंका है वह बाह्यार्थों के अस्तित्व और नास्तित्व के प्रश्न को लेकर ही है। इसी परम्परा में शून्यवादियों ने कहा कि 'यदि बाह्यार्थों की सत्ता नहीं है तो चित्त विज्ञान की भी निरपेक्ष सत्ता नहीं है। ___ संसार की सभी वस्तुएँ सोपाधिक और सापेक्षिक हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो जहाँ विज्ञानवादी ज्ञेय का अभाव मानकर भी ज्ञान की सत्ता को स्वीकार करते थे वहाँ शून्यवादियों ने कहा कि ज्ञेय के अभाव में ज्ञान ही सम्भव नहीं है, अतः उन्होंने ज्ञाता और ज्ञेय दोनों के ही स्वतंत्र अस्तित्व को नकार दिया। इनके विरोध में जैन दार्शनिकों का यह कहना है कि यदि हम ज्ञेय, ज्ञान और ज्ञाता को नकार देंगे तो फिर सर्वतः या एकान्ततः उच्छेदवाद को ही स्वीकार करेंगे। उनके अनुसार ज्ञान की सापेक्षता का अर्थ सत्ता की सापेक्षता नहीं है, जैन दर्शन का कहना है कि ज्ञाता और ज्ञेय दोनों ही अपने अस्तित्व की दृष्टि से निरपेक्ष है, मात्र उनका 247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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