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ज्ञान सापेक्ष है। इस प्रकार जहाँ शून्यवाद ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान तीनों को सापेक्ष मानता है वहीं जैन दर्शन मात्र ज्ञान को सापेक्ष मानता है, ज्ञाता और ज्ञेय को नहीं।
जैन दार्शनिकों का कहना है कि हमारे ज्ञान की सापेक्षता से ज्ञाता और ज्ञेय की सापेक्षता फलित नहीं होती है। इसी प्रकार उन्होंने यह भी कहा कि सत्ता अर्थात द्रव्य-गुण पर्याय युक्त हैं। द्रव्य-गुण-पर्याय का अस्तित्व एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी कोई सत्ता ही नहीं है। द्रव्य-गुण और पर्याय सापेक्षिक हैं। एक-दूसरे के अभाव में उनका अभाव मानना होगा फिर भी वे मात्र कल्पना नहीं, यथार्थ हैं। बाह्यार्थ की भी सत्ता है और ज्ञाता की सत्ता है।
विशेषावश्यकभाष्य में भूतों के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए वस्तुतः बाह्यार्थों के अस्तित्व को सिद्ध किया है। बाह्यार्थों का अस्तित्व सिद्ध होने पर विज्ञानवाद और शून्यवाद स्वतः निरस्त हो जाते हैं। जैन दार्शनिक ज्ञान की सापेक्षता को लेकर शून्यवाद के साथ सहमति रखते हैं किन्तु वे ज्ञाता और ज्ञेय की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार कर शून्यवाद से अपना विरोध भी प्रकट करते हैं। विशेषावश्यकभाष्य की यह चर्चा अपने इसी विरोध की परिचायक है।
इसमें बाह्यार्थों की सत्ता को स्वीकार करके सापेक्षतावाद को स्वीकार करके विज्ञानवाद और शून्यवाद से बचने का प्रयास किया गया। क्योंकि विज्ञानवाद और शून्यवाद दोनों ही तार्किक दृष्टि से चाहे कितने ही सबल क्यों न हो किन्तु व्यवहार दृष्टि से निर्बल पड़ जाते हैं। जैन दर्शन परमार्थ और व्यवहार दोनों को स्वीकार करके चलता है, अतः वह ज्ञान की सापेक्षता को स्वीकार करके भी ज्ञेय की स्वतंत्र अस्तित्व की सत्ता स्वीकारता है, यही उसका वैशिष्ट्य है।
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