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शून्यवाद कई प्रकार के एकांतवादों की चर्चा करके इस निष्कर्ष पर आता है कि वस्तु शाश्वत नहीं, उच्छिन्न नहीं, एक नहीं, अनेक नहीं, भाव नहीं, अभाव नहीं, आदि । अर्थात् इसमें 'नहीं' का पक्ष स्वीकार है, बौद्ध दर्शन में जो अन्त युगल है, उनको अस्वीकार करके मध्यम - प्रतिपत् निर्विकल्प ज्ञान को माना है। जबकि स्याद्वाद का उन एकान्तों के विषय में यह अभिप्राय है कि वस्तु शाश्वत भी है, अशाश्वत भी है, एक भी है, अनेक भी है, इत्यादि । इस प्रकार शून्यवाद और स्याद्वाद में निषेधात्मक एवं विधेयात्मक भाषाशैली को लेकर भिन्नता है । 1
यह भी बात नहीं है कि स्याद्वाद को एकान्तिक तत्तद्विकल्पों के दोषों का ज्ञान नहीं है, एकान्त में रहे दोषों का ज्ञान है किन्तु दोषों को देखकर अन्त को स्याद्वाद अस्वीकार नहीं करता, वह अन्तों में गुणों को भी देखता है और उसे उसी दृष्टि से अंगीकार करके उसके स्तर को निर्धारित करता है। निरपेक्ष अन्त का अस्वीकार और सापेक्ष अन्त का स्वीकार - स्याद्वाद की विशेषता है।
आचार्य नागार्जुन ने शून्यवाद की स्थापना के लिए तर्क को निषेधोन्मुखी खण्डन का दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने अपने समकालीन प्रमाण, प्रमेय आदि की मान्यताओं का खण्डन ही खण्डन किया। जबकि स्याद्वाद में यह विशेषता है कि खण्डन भी हो और मण्डन भी हो ।
बौद्धदर्शन में पदार्थ को सर्वथा शून्य रूप माना, स्वभाव से भी और परभाव से भी । किन्तु जैनदर्शन वस्तु को स्वभाव से अशून्य (सत्) और पर - भाव से शून्य (असत्) माना गया है । 2
समीक्षा
इस प्रकार हम देखते हैं कि विशेषावश्यकभाष्य में व्यक्त नामक गणधर की भूतों के अस्तित्त्व और अनस्तित्त्व के सम्बन्ध में उठाई गई शंका का समाधान करते हुए मूलतः बौद्धों के शून्यवाद की ही समीक्षा की गई। किन्तु शून्यवाद को इस समीक्षा में बौद्धों के विज्ञानवाद की समीक्षा अन्तर्निहित है, यह सत्य है कि बौद्धों का विज्ञानवाद और शून्यवाद दोनों ही महावीर से परवर्ती दर्शन हैं तदपि विशेषावश्यकभाष्य के काल में इन दोनों वादों
1 आ. आनन्दऋषि जी, स्याद्वाद सिद्धान्त एक अनुशीलन, पृ. 15
2 स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन, वही, पृ. 292-294
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