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शून्यवाद में शून्य शब्द का प्रयोग संसार के सोपाधिक स्वरूप या सापेक्षिक स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए किया है। यदि वस्तु यथार्थ होती और अनुपाधिक होती तब उत्पत्ति एवं विनाश से उसका स्वतंत्र होना भी आवश्यक होता। इस संसार में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो परिवर्तन के अधीन न हो, इसलिए संसार शून्य है।
इस प्रकार ज्ञात होता है कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं, होने से और शून्यवाद उच्छेद्वाद नहीं होने से नास्तिक नहीं है। नास्तिक के लिए तो परमार्थ कुछ नहीं होता है, जबकि शून्यवाद में भी परमार्थ है। नागार्जुन के दर्शन में परमार्थ वस्तु के सन्दर्भ में स्वभाव शून्यता और दर्शन के सम्बन्ध में दृष्टि शून्यता है।
शून्यवाद और अनेकान्तवाद दोनों का प्रारम्भ विभज्यवाद से हुआ। भगवान बुद्ध और भगवान महावीर दोनों ने भिक्षुओं को विभज्यवाद अपनाने का आदेश दिया है। उसी विभज्यवाद का रूपान्तर अनेकान्तवाद-स्याद्वाद है। विभज्यवाद भी अपेक्षा पर आधारित है
और स्याद्वाद भी अपेक्षा पर आधारित है। इस प्रकार एक सीमा तक दोनों वादों का साम्य स्पष्ट है, लेकिन उसके बाद इन दोनों वादों का जो विकास हुआ, उसने विभिन्न दिशाएं ग्रहण कर ली। बौद्धदर्शन के प्रतीत्यसमुत्पाद की निष्पत्ति शून्यवाद में हुई जो निषेधप्रधान है। निषेधप्रधान का तात्पर्य यह है कि तथागत बुद्ध को नास्तिकता तो इष्ट नहीं थी किन्तु उन्होंने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों का निषेध करके मध्यम मार्ग का उपदेश दिया और जैनदर्शन में नयवाद का विकास हुआ जो विधिप्रधान है। भगवान महावीर ने शाश्वत और उच्छेद इन दोनों को अपेक्षा भेद से स्वीकार करके विधिमार्ग अपनाया। इस प्रकार स्याद्वाद और शून्यवाद में एकान्त उच्छेद और एकान्त-विनाश समान रूप से असम्मत है, लेकिन दोनों में अन्तर यह है कि स्याद्वाद की भाषा में विधि प्रधान प्रयोग है और शून्यवाद का भाषा प्रयोग निषेध प्रधान है।
स्याद्वाद की तरह शून्यवाद की स्थापना में युक्ति और आगम का अवलंबन जरूरी है, तथा दोनों ने यह भी स्वीकार किया कि यदि एक भाव का परमार्थ स्वरूप समझ लिया जाये तो सभी भावों का परमार्थ स्वरूप समझ लिया गया मानना चाहिए। दोनों ने व्यवहार और परमार्थ सत्यों को स्वीकार किया है - स्याद्वाद व्यवहार और निश्चयनय तथा शून्यवाद संवृत्तिसत्य और परमार्थसत्य के रूप में मानता है।
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