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इनके आधार पर शून्य और ब्रह्म को एक नहीं कहा जा सकता। शंकराचार्य का मानना है कि शून्यवाद किसी प्रमाण से जुड़ा हुआ नहीं है। वह प्रत्येक प्रमाण से कट जाता है, क्योंकि प्रत्येक प्रमाण किसी न किसी प्रकार से सत् का ही बोध कराता है।
जैनाचार्य हेमचन्द्र और मल्लिषेण ने भी शंकराचार्य की भाँति शून्यवाद की अवधारणा करके उसका खण्डन किया है। उनका यह कथन है कि शून्यवाद प्रमाता-प्रमेय-प्रमाण और प्रमित इन सबका खण्डन करता है, इसलिए वह अपने पक्ष में कोई प्रमाण नहीं दे सकता है।
नागार्जुन की प्रतीतिवाद सम्बन्धी कल्पना समस्त योजना को भ्रान्ति समझकर छोड़ देने की प्रेरणा देती है। जब प्रत्येक वस्तु ही अयथार्थ बन गई हो, तब पुण्य-पाप भी अयथार्थ है। निर्वाण को प्राप्त करने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता ही क्या है? और दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने की भी क्या आवश्यकता है, क्योंकि दुःखों का अस्तित्व ही नहीं है? पर वास्तविकता में जीवन को भ्रान्तिरूप समझते हुए कोई भी जीवन निर्वाह नहीं कर सकता है। यद्यपि परमार्थ रूप से देखने पर दुःख अयथार्थ है किन्तु जब तक जीवन है तब तक व्यावहारिकता से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।' शून्यवाद की स्याद्वाद से तुलना
स्याद्वाद जैसे 'स्यात्' और 'वाद' इन दोनों का यौगिक रूप है वैसे ही शून्यवाद भी 'शून्य' एवं 'वाद' इन दो शब्दों से निष्पन्न है। स्यात् और शून्य शब्द को लेकर दार्शनिकों में बहुत ही भ्रान्तियाँ फैली हैं, और इन दोनों वादों का खण्डन किया है। शून्यवाद का खण्डन परम नास्तिक मानकर और स्याद्वाद का खंडन संशयवादी कहकर किया गया है। लेकिन उन खंडन में तर्क नहीं है।
स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, स्यात्+वाद – स्यात् शब्द एक अव्यय है, वह 'अपेक्षा से' या 'कथंचित' अर्थ का द्योतक है, और 'वाद' शब्द का अर्थ है - कथन करना। अपेक्षा विशेष से पदार्थ में विद्यमान अन्य अपेक्षाओं का निराकरण नहीं करते हुए वस्तु-स्वरूप का कथन करना, विभिन्न दृष्टिकोणों का पक्षपात रहित होकर तटस्थ बुद्धि और दृष्टि से समन्वय करना।
1 भारतीय दर्शन (डा. राधाकृष्णन), भाग 1, वही, पृ. 603-604
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