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1.
प्रमाण-अशून्य मान सकते हैं, और उससे भिन्न जो वादी-प्रतिवादी हैं उन्हें वे तो सिर्फ व्यवहार रूप में मानें।
उनका यह कथन मात्र श्रद्धा का विषय है। कोई भी विषय बिना प्रमाण के मात्र श्रद्धा के आधार पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है। प्रमाण सिद्धि प्रमेय के बिना नहीं हो सकती और शून्यवादी प्रमाण को नहीं मानते हैं तब प्रमेय (पदार्थ) भी सिद्ध नहीं हो सकते। यदि प्रमेय कुछ है ही नहीं तो स्वयं शून्यवाद भी एक प्रकार का प्रमेय होने से सिद्ध नहीं हो सकेगा।
अधिकांश दार्शनिकों ने शून्य को असत् समझा है और शून्यवाद को 'असत्वाद' या 'नास्तिवाद' कहा है। इन दार्शनिकों में स्वातंत्रिक सम्प्रदाय के प्रवर्तक भावविवेक भी है। वेदान्ती शंकराचार्य ने भी शून्य को असत् समझा है - कुछ लोगों का मानना है कि वेदान्त का ब्रह्म और नागार्जुन का शून्य एक है, किन्तु इन दोनों में अन्तर है।
शून्यवाद अद्वयवाद है और ब्रह्मवाद अद्वैतवाद है। शून्यवाद सिद्ध करता है कि सभी वस्तुएँ निरन्वय है और कोई सत् तत्त्व उनमें अनुस्यूत नहीं है, इसके विपरीत ब्रह्मवाद मानता है कि सभी तत्त्वों में ब्रह्म अनुस्यूत है। ब्रह्मवाद सान्वय तत्त्ववाद है और शून्यवाद निरन्वय । ब्रह्मवाद आत्मवाद है - 'अहम् ब्रह्मास्मि' अर्थात् आत्मा नामक एक तत्त्व है। जबकि शून्यवाद अनात्मवाद है - 'शून्यतैवाऽहम्' का अर्थ है कि आत्मा कोई एकल तत्त्व नहीं है। ब्रह्मवाद नित्यता दृष्टि का तार्किक परिणाम है, और शून्यवाद क्षणभंगवाद या अनित्यतावाद का तार्किक निष्कर्ष है। शून्यवाद में माया का अर्थ असत् है, किन्तु ब्रह्मवाद में माया का अर्थ असत् सत्
से विलक्षण है। 7. शून्य, बुद्धि से अगम्य है, किन्तु ब्रह्म या आत्मा बुद्धि से अगम्य नहीं है।
2.
1 स्याद्वाद एक अनुशीलन, पृ. 296 2 भारतीय दार्शनिक निबन्ध, वही, पृ. 349
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