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________________ शून्यता के विपक्ष में दिये गये तर्क शून्यवादी सब वस्तुओं को शून्य मानते हैं, उनके अनुसार समस्त जगत् शून्य है, प्रमाण-प्रमेय का विभाग शून्य है, तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि शून्यता को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण है या नहीं या वह भी अन्य सभी के समान शून्य है? जिस प्रमाण से सर्वशून्यता सिद्ध की जाती है, यदि उस प्रमाण को शून्य अर्थात् असत् माना जाता है तो फिर शून्यता की सिद्धि कैसे होगी? यदि वह प्रमाण अशून्यता अर्थात् सत् है तो 'सर्व-शून्यम्' कैसे कहा जा सकता है? यदि शून्यतासाधक प्रमाण भी शून्य हो तब तो शून्य तत्त्व की सिद्धि उपहासजनक होगी (क्योंकि प्रमाण के असत् होने पर प्रमेय की सिद्धि नहीं होती), यदि शून्यता-साधक प्रमाण विद्यमान है तो वह प्रमाण ही एक सत्य तथ्य हो जाता है और उसके साक्षात् होने पर समस्त पदार्थों का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। ___ माध्यमिक दार्शनिक अपने पक्ष का समर्थन करते हुए कहते हैं कि - शून्यता प्रतीयमान अर्थों से विलक्षण किसी वस्तु में प्रतिभासित नहीं होती, अतः उसमें प्रमाण की खोज निष्फल है, यह ईश्वर की आज्ञा है। हरिभद्र सूरि ने शास्त्रवार्ता समुच्चय में इस कथन का निरसन यह कह कर किया कि - 'मात्र ईश्वर की आज्ञा से ही वस्तु का तात्त्विक या अतात्त्विक रूप सिद्ध नहीं होता, भले ही वस्तु समस्त धर्मों से रहित हो, फिर भी प्रमाण का अन्वेषण आवश्यक है।' यदि सर्वशून्यता का अर्थ 'शून्यतासाधक प्रमाणों को छोड़कर अन्य समस्त वस्तुओं की शून्यता है' ऐसा माना जाय तो भी प्रश्न उठता है कि - 'जो प्रमाण की सहायता से शिक्षित है, वह व्यक्ति भी शून्यरूप हो जायेगा, और उस पर किया गया श्रम भी व्यर्थ जायेगा। अगर उस एक व्यक्ति को अशून्य मानते हैं तो सभी वस्तुएँ तथा सभी व्यक्ति भी अशून्य सिद्ध हो जायेंगे। माध्यमिक दार्शनिकों का मंतव्य यह हो कि – 'अनेक व्यक्तियों को अशून्य (सत्) न मानकर उस शिक्षित व्यक्ति को ही अशून्य माने जिसका अविद्या रूपी मल सौगत बुद्ध से प्राप्त तत्त्व से निर्मल हो चुका हो तो उसे सर्वधर्मों से रहित एकमात्र संविद रूप से । हरिभद्रसूरि, शास्त्रवार्ता समुच्चय, स्तबक, 6, पृ. 210, श्लोक 59 242 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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