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वह निर्विकल्प है। प्रत्येक विकल्प के निराकरण से ही विकल्प की शून्यता समझ में आ जाती है।
__ शून्य को अस्तिमात्र समझने पर शाश्वतवाद हो जायेगा और नास्ति समझने से उच्छेदवाद। इसलिए शून्यवादी न अस्तित्व का सहारा लेते हैं और न नास्तित्ववाद का। अस्ति और नास्ति दोनों अन्त है, शून्य दोनों का मध्य बिन्दु है। जैसे कि बताया है - 1. शरीर ही आत्मा है, यह एक अन्त और शरीर से भिन्न आत्मा है, यह दूसरा अन्त
रूप 'नित्य है' यह एक अन्त है 'अनित्य है', यह दूसरा अन्त है। भूतों को नित्य मानने वाले तीर्थिक है, और अनित्य मानने वाले अतीर्थिक।
'आत्मा है' यह एक अन्त और 'नैरात्म्य है' यह दूसरा अन्त है।
धर्म-चित्त-भूत सत् है यह एक अन्त और अभूत है यह दूसरा अन्त है। ___ अकुशल धर्म को संक्लेश कहना, यह पक्षान्त है और कुशल धर्मों का व्यवदान
कहना, यह प्रतिपक्षान्त है। पुद्गल-आत्मा और धर्म को अस्ति कहना, यह शाश्वतान्त है, और उन्हें नास्ति
कहना, यह उच्छेदान्त है। ___ अविद्यादि ग्राह्य-ग्राहक है, यह एक अन्त है और उसका प्रतिपक्ष विद्यादि
ग्राह्य-ग्राहक है, यह दूसरा अन्त है।
माध्यमिक ग्रन्थों में अन्त युगलों की चर्चा करके उन सभी को अस्वीकार करके मध्यमप्रतिपत् के निर्विकल्पक ज्ञान को स्वीकार किया है।
'प्रज्ञापारमिता शास्त्र' में शून्यवाद के बीस प्रकार बताये गये हैं - अध्यात्मशून्यता
2. बहिर्धातुशून्यता अध्यात्मबहिर्धातुशून्यता
| शून्यता-शून्यता
4.
1 डा. डी.डी. बंदिष्टे, भारतीय दार्शनिक निबन्ध, पृ. 345 2 आ. आनन्दऋषिजी अभिनन्दन ग्रन्थ, (लेख, स्यादवाद एक अनुशीलन - दलसुखभाई मालवणिया), पृ. 267
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