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जो किसी अन्य वस्तु के ऊपर निर्भर न करती हो। जो सापेक्ष है अथवा निर्भर है, वह अयथार्थ और शून्य है।
आनुभविक जगत् नाना प्रकार के सम्बन्धों से जकड़ा हुआ है, जैसे ज्ञाता और ज्ञेय पदार्थ और उसके गुण, कर्ता और कर्म, अस्तित्व और अभाव, उत्पत्ति, स्थिति और विनाश-एकत्व और बहुत्व, पूर्ण और उसका भाग बन्धन और मुक्ति तथा काल और देश के सम्बन्ध, ....... नागार्जुन इन सब सम्बन्धों में से एक-एक की परीक्षा करता है और उनके परस्पर विरोधों को खोलकर रख देता है। यदि अविरोध ही यथार्थता की कसौटी है, तब आनुभविक जगत् यथार्थ नहीं है। संसार न तो विशुद्ध रूप में सत् है और न विशुद्ध रूप में असत् है। विशुद्ध सत् जीवन नहीं है, अथवा संसार की प्रक्रिया का अंग नहीं है। विशुद्ध असत् भी ठीक विचार नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर परम-शून्यता भी वस्तु समझी जा सकती, जिसकी परिभाषा होती है – “सब प्रकार के जीवन का अभाव" यह एक सत्तात्मक वस्तु बन जाती है। अभाव कोई वस्तु नहीं है। संसार की वस्तुएँ हैं नहीं, किन्तु वे सदा बन जाती हैं। वे न तो स्वतः अस्तित्व वाली है और न अभावात्मक । इसी अपेक्षा से डा. राधाकृष्णन शून्यता को “भावात्मक सिद्धान्त” कहते हैं।'
शून्यता को माध्यमिक तथा अन्य दार्शनिक खण्डन प्रणाली के रूप में भी उपयोग लेते हैं। यह प्रणाली प्रसंग (Reductio-ad-absurdum) की विधि कही जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक प्रत्यय एक विरोध से त्रस्त है और इस कारण वह सत्य नहीं है, यह द्वन्द्व न्याय है। प्रो. संगमलाल पाण्डेय के अनुसार 'शून्यवाद वितर्क है, यह वादों और दृष्टियों का खण्डन है, शून्यवाद के लिए दो दृष्टियों का होना आवश्यक है, जिसका यह खण्डन करे। यह मूलतः अद्वयवाद है जो गौतम बुद्ध के विभज्यवाद का तार्किक निष्कर्ष
है।
___ नागार्जुन किसी भी वस्तु की आलोचना करने के लिए चार दृष्टियों का आश्रय लेते हैं - सदृष्टि, असदृष्टि, उभयदृष्टि, अनुभयदृष्टि । पहले वे किसी विषय के बारे में चार दृष्टियों के आधार पर चार विकल्प प्रस्तुत करते हैं, फिर वे प्रत्येक विकल्प का खण्डन करते हैं। अन्त में इस खण्डन के द्वारा वे सिद्ध करते हैं कि यथार्थतः जो वस्तु है
1 डा. राधाकृष्णन्, भारतीय दर्शन, भाग 1, पृ. 644
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