________________
हैं कि 'शून्यता' से ही प्रज्ञापारमिता की प्राप्ति होती है, जब साधक को यह ज्ञान होता है कि - समस्त पदार्थ माया, स्वप्न, तथा मिथ्या है - भावों की उत्पत्ति न स्वयं होती है, न दूसरों से तथा न उभयतः होती है। जो स्वरूप दिखाई देता है वह सांवृत्त है। व्यवहारदशा में ही प्रतीत्यसमुत्पन्न पदार्थ उत्पन्न होते हैं, परमार्थदशा में तो वे भी शून्य है, इस ज्ञान के उत्पन्न होने पर ही मुक्ति होती है।
शून्यता का प्रयोजन क्या है? इस पर शून्यवादी का कथन है - संकल्पों का नाश करना। जगत् के सभी पदार्थ निरवलम्ब, निःसंग एवं निःस्वभाव है। ऐसी अनुभूति प्राप्त करना, शून्यत्त्व का बोध है। वस्तु की उपलब्धि मानने पर, सत्ता स्वीकार करने पर प्रपंच उत्पन्न होता है। प्रपंच अर्थात् ज्ञान-ज्ञेय, वाच्य-वाचक, नर-नारी, लाभ-हानि, सुख-दुःख आदि पर विचार करना है। प्रपंच से संकल्प उत्पन्न होते हैं, और संकल्प से कर्म-क्लेशों का उद्भव होता है। संकल्प एवं कर्मक्लेशों का निरोध शून्यत्व से होता है। जब हम सभी धर्मों को शून्य समझते हैं तभी उसके आने-जाने पर सदा अनासक्त रहते हैं, क्योंकि अनासक्त भाव से यह ध्यान में रहता है कि संकल्प-विकल्प से लाभ-हानि कुछ नहीं है।' जो शून्यवादी है वह सांसारिक वस्तुओं में आसक्त नहीं होता। लाभ से प्रसन्नता नहीं होती, अलाभ से उद्वेग नहीं होता। जैसे गीता में बताया है “हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तः2 यश और अपयश से मुक्त होते हैं। निन्दा से दुःखी नहीं होते, तथा प्रशंसा से सुखी नहीं होते। जैसे कि गीता में कहा गया है - "तुल्यनिन्दा स्तुतिः तथा मानापमानयोः सुख में राग नहीं करते और दुःख में द्वेष नहीं दिखाते। जैसे कि – “शीतोष्ण सुख-दुःखेषु समः । इस प्रकार जो वस्तुओं में आसक्त नहीं होता वही जानता है कि शून्य क्या है?
इस तरह शून्यवाद का प्रयोजन मनुष्य को “मैं” और “मेरा" से मुक्ति दिलाकर उसे राग-द्वेष से हटाना तथा बोधि के मार्ग पर लगाना है।
____ नागार्जुन संसार को अयथार्थ अथवा शून्य मानता है। यथार्थ से तात्पर्य ऐसी सत्ता से है, जिसका अपना विशिष्ट स्वभाव हो, जिसकी उत्पत्ति किन्हीं कारणों से न हो, और
1 भरतसिंह उपाध्याय, बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. 699 2 हर्षामर्षभयोद्वेगैमुक्तिः, गीता, अध्याय 12, श्लोक 15 3 तुलनिन्दा स्तुतिः, तथा मानापमानयोः, गीता, 14-25/12-19 4 “शीतोष्ण सुख-दुःखेषु समः” गीता, अध्याय 12, श्लोक 18
238 For Private & Personal Use Only
Jain Education International
•
www.jainelibrary.org