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किसी स्थिर पुद्गल की सत्ता को नहीं मानते, अतः वे 'पुद्गलनैरात्म्यवादी' या 'पुद्गलशून्यतावादी' भी कहलाते हैं। इस सिद्धान्त के पक्ष में उनका कथन है कि - यह 'पुद्गलनैरात्म्य' या 'पुद्गलशून्यता' मनुष्यों के त्रास का कारण नहीं बल्कि भय का शमन करने वाली है। दुःख को उत्पन्न करने वाली वस्तु से त्रास होता है, तो शून्यता दुःख को उत्पन्न नहीं करती है।
यही बात भगवान महावीर व्यक्त जी को कहते हैं कि - जगत् के पदार्थों को जो स्वप्न के समान अथवा इन्द्रजालिक की माया कहा है, उसका अर्थ यह है कि भव्य जीव उन पदार्थों में आसक्त होकर मूढ-मोहग्रस्त न हो जाये। अनुरक्त होकर विवेक को न छोड़ दे।
__ बौद्ध दर्शन का 'प्रतीत्यसमुत्पाद' भी शून्य में अन्तभार्वित हो जाता है। पर प्रतीत्यसमुत्पाद की तरह शून्यवाद 'सापेक्ष' नहीं है। क्योंकि शून्यवाद में निःस्वभाव भावों की कोई सत्ता नहीं है। कोई वस्तु उत्पन्न ही नहीं होती है तो वे एक-दूसरे पर आश्रित कैसे होगी? कुछ लोग शून्यवाद को सापेक्षवाद मानते हैं, उनके तर्क है कि (1) लोक संवृत्ति सत्य और परमार्थ-सत्य एक दूसरे से सापेक्ष हैं। जैसे कि व्यक्त जी को शंका थी कि - संसार में जो कुछ भी है, वह सब कार्य अथवा कारण के अन्तर्गत है, एवं कार्य व कारण की सिद्धि परस्पर सापेक्ष है। (2) जब किसी भाव का खण्डन करना हो तो वे अन्योन्याश्रय के आधार पर उसको असत्य सिद्ध करते हैं। पर शून्यवाद सापेक्षवाद नहीं है क्योंकि नागार्जुन संसार और निर्वाण में भेद नहीं मानते, अतः उन्हें वस्तुओं की अपेक्षा नहीं है।' नागार्जुन ने 'दुःख' को 'निर्वाण' तथा बन्धन और मोक्ष को मिथ्या तथा असम्भाव्य बताया, तथा कर्मफल की धारणा को विरोधग्रस्त बताया। इस प्रकार यह शून्यवाद अभाव की ओर उन्मुख दिखाई देता है। इस कथन पर यह प्रश्न उठता है कि - जब सब कुछ शून्य है तो क्रिया-प्रतिक्रिया कुछ नहीं होगी। जब धर्म ही निःस्वभाव हो गया, प्रत्यक्ष जगत्-स्वप्न के समान हो गया तथा निर्वाण और बुद्धत्व माया के समान हैं तो लोकव्यवहार के प्रयोजन से कोई लाभ नहीं। इस प्रश्न का समाधान वे इस प्रकार करते
1 “यदुःखजननं वस्तु बासस्तस्मात् प्रजायताम्। ___ शून्यतां दुःखशमनी ततः किं जायते भयम्।।" बोधिचर्यावतार, नवम परिच्छेद, गाथा 56 ' गणधरवाद, महावीर देशना, श्लोक 153 ' “अपेक्षातः कार्यकारणादि भावस्यापेक्षिव्यत्वादि-व्यर्थाः" विशेषावश्यकभाष्य, टीका, पृ. 722 4 डा. डी.डी. बंदिष्टे, भारतीय दार्शनिक निबन्ध, पृ. 348
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