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असत्य हैं, क्योंकि ऐसा कहना पूर्णतः आत्मविरोधी होगा, इस तरह वस्तुओं का स्वरूप इन चार कोटियों से रहित होने के कारण 'शून्य' कहा जाता है।'
यही मत विशेषावश्यकभाष्य में व्यक्त जी ने रखा - जात की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि वह घट के समान जात है (अनवस्था प्रसंग आ सकता है), अजात की उत्पत्ति भी संभव नहीं है (यदि अजात की उत्पत्ति मानी जाए तो खर-विषाण की उत्पत्ति माननी चाहिए), जात-अजात की उत्पत्ति भी शक्य नहीं है। इस प्रकार वस्तु की उत्पत्ति किसी भी तरह नहीं कही जा सकती।
नागार्जुन अपने चतुष्कोटि न्याय का प्रयोग करके सब विषयों का अनस्तित्त्व सिद्ध करते हैं। पंचस्कन्ध द्रव्यगुण और आत्मा को असद् सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार - 'अतीत और अनागत सम्बन्धी चित्त नहीं है, 'मैं' भी नहीं है। यदि चित्त उत्पन्न होता है और नष्ट होता है तो 'मैं' भी साथ में उत्पन्न होता है और नष्ट होता है, किन्तु जब चित्त ही नहीं है तो 'मैं' भी नहीं है। इसको उदाहरण देकर समझाया है - "कदलीस्तम्भ को काटने पर कोई सार नहीं निकलता, उसी प्रकार सभी जगह खोजते हुए भी कहीं भी 'मैं' नहीं मिलता।
वस्तुओं को भी शून्य इसी प्रकार बताया है -
'सभी भौतिक और मानसिक पदार्थ माया से कल्पित हैं, मृग-मरिचिका के समान है अथवा शशशृंग के समान है। वासना का ही किया हुआ यह लोक है, और सभी पदार्थ अलातचक्र के समान है, सब अद्वय, वितथ और शून्य है। संसार में सब स्वप्नोपम है।' इस प्रकार माध्यमिक दार्शनिक बाह्य-वस्तुओं की सत्ता नहीं मानते। फलस्वरूप इस सिद्धान्त को 'धर्मनैरात्म्य' अथवा 'धर्म-शून्यता' कहा जाता है। वे आन्तरिक जगत् में भी
1 भारतीय दर्शन की रूपरेखा, वही, पृ. 118
विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1694 3 "अतीतानागत् चित्तं, ताह तद्धि न विद्यते।
अथोत्पन्नमह चित्तं, नष्टेरिमन् नास्त्यहं पुनः।।" बोधिचर्यावतार, नवम परिच्छेद, गाथा 74, पृ. 440 4 वही, गाथा 75
"यथा कदलीस्तम्भः, न कश्चित् भागशः कृतः।
तथाहऽमप्य सद्भूतः, मृग्यमाणो विचारतः।।" 5 लंकावतार सूत्र, उद्धृत - बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ. 681
"तथता शून्यता कोटी, निर्वाणं धर्म धातुकम्। अनुत्पादश्च धर्माणां, स्वभावः पारमार्थिक। अथ वैचित्रय संस्थानं, विकल्पो यदि जायते - आकाशे शशश्रृंगे च, अर्थाभासं भविष्यति।।"
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