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2. मिथ्या संवृत्ति - यह वह घटना है जो किसी कारण से उत्पन्न होती है परन्तु इसे
सभी सत्य नहीं मानते।'
पारमार्थिक सत्य की प्राप्ति निर्वाण से होती है। निर्वाण का वर्णन भावरूप से नहीं कर सकते, इसका वर्णन अभाव रूप से ही हो सकता है। नागार्जुन ने निर्वाण का नकारात्मक वर्णन किया है। नागार्जुन का यह मत शांकर मत से बहुत साम्य रखता है। आचार्य शंकर ने भी माया के संदर्भ में इस प्रकार कहा है -
“माया न सत् है, न असत् है, न उभयात्मक है। न वह भिन्न है और न अभिन्न है और न उभयात्मक है। न सरंग है, न निरंग है और न सांग-निरांगात्मक ही है। वह अत्यन्त अद्भूत है। उसका स्वरूप अर्निवचनीय है। जैसे रज्जु में सर्प का ज्ञान होने के पश्चात् अन्य प्रमाणों से रज्जु का ही होना निश्चित हो जाने पर 'रज्जु में सर्प का ज्ञान' बाधित हो जाता है। इसलिए अज्ञान 'सत्' भी नहीं है। खरहे के सींग की तरह यह 'असत्' भी नहीं है। इसकी प्रतीति होती है।
माध्यमिक शून्यवाद का दर्शन शंकर के अद्वैत वेदान्त से मिलता है। जैसे नागार्जुन ने दो प्रकार के सत्य को माना है, वैसे ही वेदान्त दर्शन ने व्यावहारिक सत्य और पारमार्थिक सत्य को माना है। नागार्जुन ने पारमार्थिक, दृष्टिकोण से ही सभी विषयों व सभी वस्तुओं को असद् कहा है, शंकर ने भी ईश्वर व जगत् को पारमार्थिक दृष्टिकोण से असद् माना है। इस प्रकार नागार्जुन का 'शून्य' और शंकर का 'निर्गुण ब्रह्म' एक दूसरे से बहुत मिलते हैं। इन समानताओं के कारण कुछ विद्वानों ने शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कह डाला। पर फिर भी अन्तर है।
शून्यवादी किस प्रकार वस्तुओं के बारे में कथन करते हैं, वह दृष्टव्य है - जैसे कि - विश्व के विभिन्न विषयों को हम सत्य नहीं कह सकते हैं क्योंकि सत्य का अर्थ निरपेक्ष होता है। जितनी वस्तुओं को हम जानते हैं वे किसी न किसी तथ्य पर निर्भर होती हैं, न हम विभिन्न वस्तुओं को असत्य कह सकते हैं, क्योंकि वे दिखाई देती हैं न ही विश्व के विषयों को उभय रूप से कह सकते हैं, क्योंकि ऐसा कहना व्याघातक होगा। विश्व के विषयों के सम्बन्ध में यह भी नहीं कह सकते हैं कि वे न तो सत्य है और न
1 भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ. 119 2 मुनि राकेशकुमार, भारतीय दर्शन के प्रमुखवाद, पृ. 69
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