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सत् है, न असत् है, न उभय है और न अनुभय है। वह समस्त विचारों से अतीत है, उसको समझने के लिए उपनिषदों की नेति-नेति दृष्टि या व्यतिरेक दृष्टि का आश्रय लिया जा सकता है। शून्यता समस्त दृष्टियों का खण्डन है, शून्य का काई परवर्ती प्रत्यय नहीं है अर्थात् शून्य को किसी दूसरे प्रत्यय के द्वारा नहीं समझ सकते हैं। शून्य को शून्य के द्वारा ही समझा जाता है। शून्य समस्त प्रपंचों से परे है, वह निर्विकल्प है अर्थात् चित्त के जो विकल्प हैं उनसे दूर है। वह अनन्यार्थ है, अनेकार्थक नहीं
वस्तुतः बाह्य जगत् और चित्तजगत् दोनों ही सापेक्ष हैं, उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्त्व नहीं है। शून्यवाद वस्तुतः सापेक्षतावाद का ही एक रुप है, सापेक्षवाद से यह फलित हो जाता है कि किसी की भी स्वतंत्र सत्ता नहीं है, वस्तु तत्त्व को हम किसी भी रूप में परिभाषित नहीं कर सकते हैं, उसे एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि किसी भी कोटि में बांधा नहीं जा सकता।
शून्यवाद को जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि - बौद्ध दार्शनिकों ने शून्यवाद के समर्थन में क्या-क्या तर्क दिये हैं? शून्यवाद के समर्थन में दिये गये तर्क
शून्यवाद के प्रवर्तक आचार्य नागार्जुन ने शून्यवाद के पक्ष में कई तर्क दिये हैं -
सत्य दो प्रकार के हैं - 1. संवृत्ति सत्य और 2. परमार्थ सत्य। संवृत्ति सत्य साधारण मनुष्यों के लिए है। यह वह सत्य है जो दिखाई पड़ता है किन्तु वास्तविक सत्य नहीं है। हम जो कुछ देखते हैं वह शून्य है, स्वप्न है, कुछ नहीं में कुछ का मिथ्याभास है। यह अविद्या है, मोह है। यह भी दो प्रकार का है 1. तथ्य संवृत्ति - यह वह वस्तु या घटना है, जो किसी कारण से उत्पन्न होती है,
इसे सत्य मानकर सांसारिक लोग व्यवहार करते हैं। तथा
1 भारतीय दार्शनिक निबन्ध, पृ. 345
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