________________
खण्डन है, उनके लिए शून्यता एक खण्डनात्मक तर्कशास्त्र है। परन्तु स्वातंत्रिक सम्प्रदाय के आचार्य 'भावविवेक' का मानना है कि - शून्य का अर्थ निरपेक्ष सत्ता का अभाव या असत् होना है और महायान दार्शनिक शान्तिरक्षित और कमलशील के अनुसार शून्य विज्ञान या विज्ञप्तिमात्र से अभिन्न है।'
अब प्रश्न उठता है कि "शून्य" शब्द का माध्यमिक मत में क्या अर्थ है? माध्यमिक मत में शून्य का अर्थ शून्यता (Nihilism) नहीं है। इसके विपरीत शून्य का अर्थ वर्णनातीत (Indescribable) है। नागार्जुन के अनुसार परमतत्त्व अवर्णनीय है। मानव को वस्तुओं के अस्तित्व की प्रतीति होती है, परन्तु जब वह उनके तात्त्विक स्वरूप को जानने के लिए तत्पर होता है तो उसकी बुद्धि काम नहीं करती। वह यह निश्चय नहीं कर पाती कि वस्तुओं का यथार्थसत्य है या असत्य? या सत्य तथा असत्य दोनों है या न तो सत्य है और न असत्य ही है। तब वे यह मन्तव्य देते हैं कि - 1. पदार्थों का न तो निरोध होता है, न उत्पाद होता है और न उच्छेद ही होता है,
न वे नित्य है, न उनमें अनेकता है, न एकता है और न उनमें गमन होता है और न आगमन ही होता है। अतःएव सब धर्म माया होने से निस्स्वभाव हैं। संसार में जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब अपने-अपने हेतु प्रत्यय सामग्री से उत्पन्न होती हैं, और अपनी योग्य सामग्री के अभाव में नहीं होती हैं। वस्तुओं का अपना कोई वैशिष्ट्य नहीं है, यही उनकी निःस्वभावता है, शून्यता है।' पदार्थ स्वभाव से भावरूप नहीं है, इसलिए वे परभाव की अपेक्षा भी उत्पन्न नहीं होते, अन्यथा सूर्य से अन्धकार की उत्पत्ति होनी चाहिए। पदार्थ स्वभाव-परभाव की अपेक्षा उत्पन्न नहीं होते, तथा उभय रुप से भी उत्पन्न नहीं होते, न ही अनुभय रुप से उत्पन्न होते हैं। शून्य न सत् है और न असत् है, वह इन दोनों कोटियों से परे है, शून्य को चार कोटियों से परे कहे जाने पर ही शून्य की सही व्याख्या हो सकती है - शून्य न
1 डा. डी.डी. बंदिष्टे, भारतीय दार्शनिक निबन्ध, मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, पृ. 343 2 डा. हरेन्द्रप्रसाद सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ. 119 3 “अनिरुद्धमनुत्पाद, मनुच्छेदमशाश्वतं।
अनेकार्थमनानार्थम नागनिर्गमम्।।" माध्यमिक वृत्ति 4 “ना सन्न सद्सन्न, चाप्यानुभयात्मकम् ।
चतुष्कोटि विनिमुक्तम् तत्वं, माध्यमिका विदुः" स्याद्वाद मंजरी, श्लोक 17, पृ. 178
233
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org