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मिथ्यात्वी है तो वह भी निर्वाणमार्ग का आराधक नहीं हो सकता। किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्ति सम्पन्न हैं तो दोनों ही आराधक होते हैं।
इस प्रकार बुद्ध ने उक्त प्रश्न के उत्तर में न केवल "हाँ" ही कहा और न केवल “ना” ही। बल्कि एक तीसरा ही दृष्टिकोण अपनाकर स्वयं को विभज्यवादी बतलाया। यदि वे विधेयात्मक उत्तर देते तो भी एकांशवादी कहलाते और निषेधात्मक उत्तर देते तो भी एकांशवादी कहलाते। जैन आगमों में भी विभज्यवाद का उल्लेख मिलता है। भिक्षु को कैसी भाषा बोलना चाहिए, इसके उत्तर में भगवान महावीर ने कहा कि - "भिक्षु विभज्यवाद का प्रयोग करे।
भगवतीसूत्र में विभज्यवाद का लक्षण निम्न उद्धरण से प्राप्त होता है - "हे भगवन्! जीव सवीर्य (वीर्य वाले) हैं या अवीर्य?" “हे गौतम! जीव अपेक्षाविशेष से सवीर्य भी हैं और अवीर्य भी।
इस प्रकार जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओं में विभज्यवाद के संदर्भ उपलब्ध होते हैं। जहाँ यह विभज्यवाद जैन दर्शन के मूलस्वरूप को स्थिर रखते हुए विधिमूलक पद्धति के द्वारा विकसित होकर अनेकान्तवाद में पर्यवसित हुआ, वहीं बुद्ध का विभज्यवाद अव्याकृतवाद और निषेधमूलक पद्धति के माध्यम से गुजरता हुआ अन्त में शून्यवाद में पर्यवसित हो गया।
__माध्यमिक दार्शनिक शून्य को परमार्थ मानते हैं, इसलिए इसे शून्यवाद कहा जाता है। शून्य का अर्थ गणित का शून्य नहीं है, यहाँ शून्य एक दार्शनिक सम्प्रत्यय है। शून्य शब्द के कई अर्थ समझे जाते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार इसका अर्थ अभावात्मक है, तो कुछ अन्यों के लिए इन्द्रियातीत और अव्याख्येय तत्त्व है, जो सब वस्तुओं की सापेक्षता को सूचित करता है। महायान विज्ञानवादी बौद्ध दार्शनिक - शून्य को एक अन्त मानते हैं। माध्यमिक दार्शनिक शून्य के भिन्न-भिन्न अर्थ बताते हैं। माध्यमिकों में दो सम्प्रदाय हैं, प्रासंगिक और स्वातंत्रिक। प्रासंगिक सम्प्रदाय के आचार्य बुद्धपालित, चन्द्रकीर्ति और शान्तिदेव हैं। वे मानते हैं कि - शून्यवाद कोई दृष्टि नहीं है, वह सभी दृष्टियों का
' मज्झिम निकाय भाग 2, 49/1 (सुभसुत्तं), उद्धृत “स्याद्वाद और सप्तभंगीनय” डा. भिखारीराम, पृ. 25 १ "भिक्खु! विभज्जवायं च वियागरेज्जा", सूत्रकृतांग सूत्र, 1/1/14-22 3 भगवती सूत्र, भाग 1, 1/8/275
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