________________
शून्यवादक्या है?
शून्यवाद के विकास के मूल में विज्ञानवाद रहा हुआ है। विज्ञानवाद बाह्यार्थों की सत्ता का निषेध करता है, वह मानता है कि मात्र चित्त संतति या चेतना प्रवाह ही है, जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं, वह मात्र चित्त की कल्पना ही है, जिस प्रकार बौद्ध विज्ञानवाद बाह्यार्थ अर्थात् भौतिक तत्त्वों की सत्ता का निरसन कर देता है और चित्त को एक चेतना प्रवाह के रुप में स्वीकार करता है किन्तु शून्यवाद न तो बाह्य जगत् की सत्ता को स्वीकारता है और न चित्त तत्त्व के स्वतंत्र अस्तित्त्व को उसके अनुसार कोई भी सत्ता निरपेक्ष सत्य नहीं है। सभी का मात्र सापेक्षिक या व्यावहारिक अस्तित्त्व है, किन्तु वास्तविक अस्तित्त्व नहीं है ।
I
इस शून्यवाद का विकास भी बौद्ध और जैन दर्शन के विभज्यवाद से हुआ | यह एक विश्लेषणात्मक तर्क पद्धति है, जिसमें किसी भी प्रश्न का उत्तर सापेक्षिक रुप से दिया जाता है।
इसी विभज्यवाद के आधार पर द्वितीय शताब्दी के उद्भट विद्वान, दार्शनिक, नागार्जुन ने माध्यमिक दर्शन द्वारा समस्त दर्शन तथा वादों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और अपने दृष्टिकोण को "शून्यवाद" कहा है।
विभज्यवाद अर्थात् प्रश्न को विभाजित करके उत्तर देना। दो विरोधी बातों को एक सामान्य से स्वीकार करना और पुनः उसी को विभाजित करके उन विभागों को संगत बताना, यह विभज्यवाद का मुख्य लक्ष्य है । विभज्यवाद का उल्लेख जैन आगमों में भी यत्र-तत्र मिलता है ।
उत्तर विभज्यवाद से दिये हैं। एक बार शुभ
भगवान बुद्ध ने अपने प्रश्नों माणवक ने गौतमबुद्ध से पूछा "भगवन्! मैंने ब्राह्मणों को यह कहते सुना है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रव्रजित नहीं। इस सम्बन्ध में आपका क्या मत है?" तब उन्होंने कहा - "हे माणवक! मैं यहाँ विभज्यवादी हूँ, एकांशवादी नहीं । माणवक ! गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह निर्वाण-मार्ग का आराधक नहीं हो सकता और त्यागी भी यदि
Jain Education International
231
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org