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________________ वनस्पति में जीव है, यह आचारांग सूत्र तथा अन्य कई आगमों में सिद्ध किया है और आज वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं।' _ इस प्रकार पृथ्वी आदि पाँच भूतों के कारण संसार सर्वशून्य नहीं हो सकता, संसार से अनेक जीव मोक्ष में जाते हैं, फिर भी संसार जीवों से रहित नहीं होगा। क्योंकि पंच भूतों में अनन्त जीव हैं। वेदवाक्यों का समन्वय ___वेदों में 'स्वनोपमंवै सकलमिथ्येष ब्रह्म विधिरंजसाविज्ञेयः' पद में संसार को स्वप्न-सदृश्य कहा है, इसका अर्थ यह नहीं कि पदार्थों का सर्वथा अभाव है। किन्तु अन्य जीव इन पदार्थों में अनुरक्त होकर मूढ न हो जाएं, उनमें आसक्त न हो जाएं। इस उद्देश्य से उन्हें स्वप्नोपम अथवा असार बताया गया है। अतः वेद वचन का तात्पर्य सर्वशून्यता नहीं है। यह वाक्य अपेक्षा विशेष से है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, और वे धर्म अपेक्षाभेद से परिवर्तनस्वभाव वाले होते हुए भी अभिन्न रूप से वस्तु में विद्यमान रहते हैं। और पृथक्-पृथक् सहकारी कारणों के संनिधान से भिन्न-भिन्न रुप में अभिव्यक्त होते रहते हैं, इसका कारण यह है कि द्रव्य में पाये जाने वाले ये अनन्त धर्म सामान्य-विशेषात्मक हैं अथवा गुण-पर्यायात्मक हैं। गुण रुप अंश तो ध्रौव्य-सत्ता रुप है जबकि पर्यायें प्रतिसमय उत्पत्ति-विनाशात्मक परिवर्तन करते हुए भी मूल स्वरूप का त्याग नहीं करती हैं। यह स्पष्ट है कि जगत् में सभी वस्तुओं की सत्ता है। इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया कि पाँच भूतों का अस्तित्त्व है, सर्वशून्य नहीं है। प्रस्तुत चर्चा से हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि विशेषावश्यकभाष्य में इस संवाद के माध्यम से बाह्यार्थवाद का समर्थन तो किया ही गया है किन्तु इसके साथ-साथ परवर्ती काल में विकसित शून्यवाद की समीक्षा भी की गई। अतः यहाँ सर्वप्रथम हम देखने का प्रयत्न करेंगे कि शून्यवाद क्या है? उसका विकास कैसे हुआ है? और जैन दार्शनिकों ने उसकी समीक्षा किस प्रकार की है? 1 (क) मिला प्रकाश खिला बसन्त (जयन्तसेन सूरि) पृ. 15 5-158 (ख) गणधरवाद (दलसुखभाई मालवणिया) पृ. 89-91 230 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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