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________________ की जगह खरविषाण का ही अग्रभाग दिखाई दे तथा स्तम्भादि का अग्रभाग दिखाई न दे, ऐसा विपर्यय क्यों नहीं होता।' दृश्य-अदृश्य के बारे में अनुमान करते हैं कि पिछला भाग नहीं है अतः अगला भाग भी नहीं है। यह अनुमान विचित्र है। जिस प्रकार अग्नि की उष्णता अबाधित प्रत्यय है, वैसे ही अग्रभाग भी अबाधित है। यह अनुमान हो सकता है कि दृश्य वस्तु का पिछला भाग है, क्योंकि उसका सम्बन्ध वाला अगला भाग ज्ञात है। जिसके सम्बन्ध वाला एक भाग मालुम होता है उसका दूसरा भाग अवश्यमेव होता है। जैसे घड़े आदि का। यदि अग्रभाग को माने और परभाग को न माने तो संभव नहीं होगा। और प्रमुख बात यह है कि जब सब शून्य है तो अग्रभाग मध्यभाग तथा परभाग जैसे भेद हो ही नहीं सकते। यदि यह माने कि यह सब भेद दूसरे वादियों की अपेक्षा से है, तो यह कथन अयुक्त है क्योंकि जहाँ सर्वाभाव है वहाँ स्वमत तथा परमत के भेद नहीं हो सकते हैं। ____ यदि यह माने कि परभाग दिखाई नहीं देने से वस्तु शून्य है, तो यह अयुक्त है क्योंकि स्फटिक या अभ्रक आदि में पिछला भाग भी दिखाई देता है। और यदि यह मानें कि कुछ भी दिखाई नहीं देता, अतः सर्वशून्य है। तो कथन में विरोध होता है, क्योंकि पूर्व में 'परभाग का अदर्शन है' ऐसा माना और अब "किसी का दर्शन नहीं है। जबकि घड़े-कुर्सी आदि बाह्य वस्तु सबको प्रत्यक्ष है। अतः यह कथन कि 'कुछ भी दिखाई नहीं देता' प्रत्यक्ष विरोधी है। ____ यदि यह माने कि - अनित्य पदार्थ जिस प्रकार प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रखते उसी प्रकार 'परभाग का दिखाई नहीं देना' यह हेतु 'चाहे स्फटिकादि शून्य पदार्थों में न हो, किन्तु पक्ष के अधिकांश भाग में है ही, अतः वह नहीं है। इस कथन में व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता, जैसे – 'जो अनित्य नहीं होता वह प्रयत्न से उत्पन्न भी नहीं होता, जैसे आकाश। यह व्यतिरेक सिद्ध है। किन्तु यह व्यतिरेक सिद्ध नहीं होता कि - 'जहाँ शून्यता नहीं, वहाँ परभाग का अदर्शन नहीं। ऐसा व्यतिरेक किसी विद्यमान वस्तु में ही सिद्ध हो सकता है, जबकि सर्वाभाव में वस्तु की विद्यमानता असिद्ध है। 1 "देसस्साराभागो घेपति ण य सो तिथ णणु विरूद्धमित्तं। सव्वाभावे वि ण सो घेप्पति, किं खरविसाणस्स।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1739 2 "सव्वाभावे वि कत्तो आरा-पर-मज्झभागणाणत्तं।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1741 3 गणधरवाद, (दल सुखभाई मालवणिया) पृ. 86-87 227 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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