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अदृश्य होने के कारण सब शून्य है
वस्तु की उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि अदृश्य वस्तु अविद्यमान है किन्तु जो दृश्य है उसका भी पिछला भाग (पृष्ठभाग) अदृश्य (दिखाई नहीं देने से) होने से दृष्टिगोचर नहीं होता और जो सबसे निकट का भाग है, वह सूक्ष्म होने से दिखता नहीं है। इसलिए उसे भी सर्वथा अदृश्य मानना ही श्रेष्ठ है, और जब अदृश्य है तो खरविषाण वत् शून्य ही मानना ठीक है।
___ यहाँ प्रश्न हो सकता है कि - स्तम्भादि बाह्य पदार्थ तो दिखते हैं तो उनको अदृश्य कैसे कहा जा सकता है? इसका समाधान है कि - स्तम्भादि पदार्थ पूर्ण रूप से नहीं दिखाई देते हैं, उसके तीन अवयव माने कि - पृष्ठभाग, मध्यभाग और सामने दिखाई देने वाला भाग। उनमें से पृष्ठभाग नहीं दिखता, जिससे वह अदृश्य है, अव्यक्त है - अव्यक्त माद्यं किलवस्तुनोऽस्ति।' सामने वाला भाग जो दिखाई देता है, वह भी सावयव है। उसके अन्तिम अवयव तक जाने पर परमाणु शेष रहेगा। और परमाणु सूक्ष्म होने से अदृश्य है, और जब आदि-अन्त की यह स्थिति है तो मध्य उनके आश्रित कैसे रह सकेगा? उसका अस्तित्व स्वतः ही असिद्ध है। अतःएव यह मानना युक्तिसंगत है कि सर्वजगत् शून्य है।
व्यक्त जी की इस शंका का समाधान श्रमण भगवान महावीर ने इस प्रकार किया
यह अदृश्य-दृश्य की जो शंका है वह पूर्वापर विरोध से युक्त है, क्योंकि कथन है कि वस्तु का पृष्ठभाग अदृश्य है, अतः दिखाई नहीं देता और अग्रभाग दिखाई देता है, वह भी अन्य भागों के कारण अतिसूक्ष्म है, अतः दिखाई नहीं देता है" यह अयुक्त है। यह कथन तो "अहं वंध्यापुत्रोऽस्मि" के समान है।
यदि कहें कि वस्तु का अगला भाग भी भ्रान्ति से दिखाई देता है तो खरविषाण का अगला भाग क्यों नहीं मालूम होता है? क्योंकि दोनों शून्य है। स्तम्भादि के अग्रभाग
1 महावीर देशना, श्लोक 5, पृ. 152 2 “परभागादरिसणत्तो, सव्वाराभागसुहुभतात्तो य।
उभयाणुवलंभाती, सव्वाणुवलद्धित्तो सुण्णं।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1696
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