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है। जिस वस्तु का अभाव है, उसके विषय में भेदाभेद का विचार ही उत्पन्न नहीं होता, जैसे वन्ध्यापुत्र । उस पर कोई चर्चा ही नहीं की जा सकती है।'
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जैसे घट और अस्तित्व का भेदाभेद किया गया वैसे ही घट और शून्यता के विषय में भी हो सकता है। जैसे - घट तथा शून्यता भिन्न है या अभिन्न? अगर भिन्न है तो घट अशून्य (सत्) हुआ, और अगर अभिन्न है तो वह शून्यता भी घट रूप में हुई। वहाँ भी घट का अभाव सिद्ध नहीं होता।
शून्यता का ज्ञान और कहने वाले वचन वक्ता से भिन्न है या अभिन्न है? यदि एक है तो वस्तुओं का अस्तित्व सिद्ध होता है, जैसे आम्र और वृक्षत्व में एकता है। उस स्थिति में शून्यता व्यर्थ है। किन्तु यदि अलग माने तो वक्ता पत्थर के समान अज्ञानी तथा वचनशून्य बन जायेगा, जिससे शून्यवाद की सिद्धि नहीं हो सकेगी।
घट और घट का अस्तित्व एक मानने पर सब वस्तुएँ घट रूप हो जायेगी, यह कथन युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि घट की सत्ता घट का धर्म है, कागज़-कलम की सत्ता उनका धर्म है, घट के समान शेष पदार्थ भी विद्यमान है, किन्तु सब पदार्थ घट रूप नहीं हो सकते।
- घट और अस्तित्व को एक मानने पर सब पदार्थों का अवरोध हो जाता है, और घट सर्वात्मक हो जाता है, यह विचार भ्रमपूर्ण है। घट का अस्तित्व अन्य पदार्थों के अस्तित्व से भिन्न है। घट का अस्तित्व घट में ही है, कागज़-कलम आदि में नहीं। अस्ति कहने से जितने पदार्थों में अस्तित्व धर्म है, उन सबका बोध होगा। जैसे - वृक्ष कहने से सभी वृक्षों का समावेश हो जाता है किन्तु आम्र कहने से वृक्षत्व का ही बोध होता है। अतः न सर्व पदार्थों का अवरोध होता है, और न घट सर्वात्मरूप से होता है।'
1 “अत्थि घडेकाणेकत्ता, य पज्जायमेत्तचिंतियं।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1719 2 “घडसुण्णअण्णताए वि सुण्णता का घड़धिया सोम्म।
एकत्ते घडओ च्चिय, ण सुण्णता नाम घड धम्मो।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1720 3 “घडसत्ता घडधम्मो, तत्तोऽणण्णो पडादित्तो भिण्णो।
अस्थि त्ति तेण भणितो, को घड एवेति नियमोऽयं ।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1722 4 "अत्थि त्ति तेण भणिते, घडोऽघडो वा घडो तु अत्थेव।
चूतोऽचूतो व्व दुमो चूतो, तु जधा दुमो णियमा।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1724
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