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आकाश--कुसुम में भी हृस्वता-दीर्घता का प्रतिभास क्यों नहीं होता? अतः यह तथ्य मानना होगा कि सर्वशून्य नहीं है, किन्तु पदार्थ विद्यमान है, उनका अस्तित्त्व है।'
। ज्ञातव्य है कि महावीर के काल में तो भूतों के अस्तित्त्व का ही प्रश्न उठा था किन्तु कालान्तर में बौद्धों के विज्ञानवाद के बाह्यार्थ के निषेध और माध्यमिकों की सर्वशून्यता की अवधारणा के विकास के कारण विशेषावश्यकभाष्य में व्यक्त के शंका के उत्तर के साथ ही इन दोनों मतों की समीक्षा भी प्रस्तुत की गई।
__सर्वशून्यतावाद में अपेक्षा नहीं हो सकती है, अपेक्षा वस्तु के विद्यमान होने पर ही होती है, पर शून्यवादी वस्तु की सत्ता ही नहीं मानते हैं वहाँ मात्र अपेक्षा से क्या हो सकता है? जैसे घड़े आदि पदार्थ शून्यता के प्रतिकूल है, वैसे अपेक्षा भी शून्यता के प्रतिकूल है। यदि अपेक्षा आदि को स्वाभाविक माने तो भी शून्यता की हानि होती है, क्योंकि स्व को मानने पर परभाव की भी कल्पना करनी पड़ती है। विद्यमान पदार्थों में ही स्वभाव की कल्पना की जा सकती है, 'वन्ध्यापुत्र' जैसे अविद्यमान पदार्थों में कल्पना होती ही नहीं है। ऐसी स्थिति में शून्यवाद का निरास हो जाता है।'
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि वस्तु की सत्ता अपेक्षाजन्य नहीं है, केवल वस्तु के दीर्घत्वादि का ज्ञान तथा व्यवहार कथंचित अपेक्षाजन्य है। इसलिए वस्तु में अन्य किसी की अपेक्षा नहीं है यह मानकर उसे असत् नहीं कहा जा सकता, तथा शून्य भी नहीं माना जा सकता। जब क्रिया, कर्म और कर्ता तीनों विद्यमान हो, तभी अपेक्षा मानी जा सकती है। अपेक्षा को मानने से वस्तु की सर्वशून्यता घटित न होकर वस्तु की सत्ता ही सिद्ध होती है।
पदार्थों की सिद्धि चारों विकल्पों से होती है - 1. मेघ आदि स्वतः सिद्ध है क्योंकि विशेष द्रव्य होने के कारण कर्ता आदि की अपेक्षा
नहीं रखते।
1 "किं हस्सातो दीहे, दीहात्तो चे व किण्ण दीहम्मि।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1713 2 "किं वाऽवेक्खाएच्चिय, होज्ज मती वा सभाव एवायं।
सो भावो ति सभावो, वंझापुत्ते ण सो जुत्तो।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1713 3 "होज्जावेक्खातो वा विण्णाणं वाभिधाणमेत्तं वा।
दीहं ति व हरसंति व ण तु सत्ता सेसधम्मा वा।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1714
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