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________________ समान रूप से असत् हैं। फिर भी एक में हृस्वत्व आदि व्यवहार होता है दूसरे में नहीं, इसका क्या कारण है? इसलिए मानना चाहिए कि अंगुली आदि पदार्थ सत् है, विद्यमान है। प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म है, अतःएव भिन्न-भिन्न निमित्त पाकर वे नाना प्रकार का ज्ञान उत्पन्न करते हैं। किन्तु यदि अंगुली आदि पदार्थ सर्वथा अविद्यमान हो तो उनमें अपेक्षा से भी हृस्व-दीर्घ आदि का व्यवहार एवं स्वतः-परतः आदि विकल्प सिद्ध नहीं हो सकेंगे। शून्यवादी कहें कि शून्यवाद में स्व-पर आदि का भेद नहीं है, किन्तु दूसरे वादी भेद समझते हैं। परन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि शून्यता में यह स्व मत है और यह अन्य मत है, यह भेद सम्भव नहीं है। यह भेद स्वीकारने पर शून्यता खण्डित हो जाती है। यदि व्यवहार की अपेक्षा से हृस्व और दीर्घ आदि माने तब प्रश्न उठता है कि हृस्व-दीर्घ का ज्ञान एक साथ होता है या क्रम से होता है? यदि युगपद् ज्ञान होता है तो किसी को किसी की अपेक्षा नहीं रहनी चाहिए, क्योंकि जिस समय मध्यमा अंगुली में दीर्घत्व का आभास हुआ, उसी समय प्रदेशिनी (तर्जनी) में हृस्वत्व का आभास हुआ, दोनों को जानने में अपेक्षा व्यवहार नहीं हुआ। यदि हृस्व-दीर्घ का व्यवहार क्रमशः होता है तब दीर्घ की अपेक्षा के बिना ही, पहले हृस्व का ज्ञान हो जाता है, तो हृस्वत्व को सापेक्ष कैसे कह सकते हैं? इससे यह सिद्ध होता है कि अनुकूल सामग्री मिलने पर, दूसरों की अपेक्षा के बिना ही सब पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में प्रतिभासित हो जाते हैं। जैसे - जो नवजात शिशु को ज्ञान होता है, उसमें किस की अपेक्षा सहयोग देती है? इसी प्रकार दोनों नेत्रों की समानता को ग्रहण करने वाले ज्ञान में कोई अपेक्षा नहीं होती। अतः अंगुली आदि पदार्थों का स्वरूप किसी अन्य की अपेक्षा नहीं, बल्कि स्वतः सिद्ध है।' इसके अतिरिक्त अगर शून्यता सही अर्थों में है तो दीर्घ पदार्थ में दीर्घता और हृस्व में हृस्वता का ज्ञान क्यों होता है? अथवा विपरीत ज्ञान क्यों नहीं होता? 1 “जुगवं कमेण वा ते, विण्णाणं होज्ज दीहहस्सेस। जति जुगवं कावेक्खा, कमेण पुवम्मि काऽवेक्खा।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1712 219 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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