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________________ (ग) (घ) हर एक वस्तु अपने से भिन्न वस्तु को उत्पन्न कर लेगी। जैसे कि तैल उत्पन्न होने लगेगा । जब तैल न स्वतः उत्पन्न है और न परतः, किसी वस्तु से उत्पन्न है तो फिर वह दोनों के सम्मिलन से भी उत्पन्न नहीं होगा। वह किसी भिन्न- अभिन्न वस्तु से उत्पन्न नहीं हो सकता । अन्ततः यदि तैल न अपने से उत्पन्न है और न अपने से भिन्न किसी वस्तु से, तो फिर वह निर्हेतुक है, अकारण है, वह अकस्मात हो गया है। अतः उत्पत्ति मानना असंगत है।' इस पर व्यक्त ने निम्न तर्क प्रस्तुत किया हस्व-दीर्घत्व व्यवहार में भी ऐसा ही है, वह भी सापेक्ष है, स्वतः हस्व या दीर्घ नहीं है, जैसे तर्जनी अंगुली अंगूठे की अपेक्षा से बड़ी है किन्तु वही मध्यमा की अपेक्षा से छोटी है। वस्तुतः वह स्वतः लम्बी भी नहीं है और छोटी भी नहीं है। इस प्रकार पदार्थ में स्वतः परतः, उभयतः और अन्यतः कार्यकारण भाव नहीं है। अतः संसार में सब कुछ सापेक्ष होने से शून्य है । श्र.भ. महावीर द्वारा इस शंका का समाधान इस प्रकार किया गया। शून्यवाद में जब सब शून्य है तब यह 'स्व' है और वह 'पर' है, यह भेद-बुद्धि कैसे हो सकती है। और यदि यह स्व- परादि विषयक बुद्धि ही न हो तो वह जो स्व-पर आदि विकल्पों द्वारा वस्तु की सिद्धि या असिद्धि की है, वह कैसे हो सकती है। - दूसरी बात यह है कि वस्तु की सत्ता सापेक्षता से ही होती है, यह मानना तथा दूसरी ओर यह कहना कि वस्तु की सिद्धि स्व-पर आदि किसी से भी नहीं होती, ये दोनों कथन परस्पर विरूद्ध हैं । 1 (क) भारतीय दार्शनिक निबन्ध, वही, पृ. 350 (ख) न स्वतो जायते भावः परतोनैव जायते । प्रत्येक पदार्थ की सत्ता में दो कारण हैं (1) अपेक्षा - कृतत्व तथा (2) अर्थक्रियाकारित्व । इन दोनों कारणों से पदार्थ स्वतः सिद्ध है। वस्तु की सत्ता मात्र आपेक्षिक मानने पर प्रश्न उठता है कि यदि असत् अंगुलियों में ह्रस्व-दीर्घादि व्यवहार हो सकता है, तब असत् खरविषाणादि में ऐसा व्यवहार क्यों नहीं होता, जबकि वे दोनों पत्थर से - न स्वतः परतश्चैव जायते जायते कुतः ।। मूल माध्यमिक कारिका, 21/13 Jain Education International 2 “किध सपरोभय बुद्धि, कथं च तेसि परोप्परमसिद्धि । अध परमतीए भण्णति, सपरमति विसेसणं कत्तो।” विशेषावश्यकभाष्य, गाया 1709 218 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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