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नहीं बन सकता।' स्वप्न भावरूप होता है क्योंकि घट-विज्ञानादि के कारण वह विज्ञानरूप है। जैसे घड़ा अपने दण्डादि निमित्तों द्वारा उत्पन्न होने के कारण भावरूप है, वैसे ही स्वप्न भी निमित्तों से उत्पन्न होने के कारण भावरूप है।
दूसरा तथ्य है कि वेदों में जो संसार को स्वप्न के समान बताया है उसका अर्थ यह नहीं कि जगत् में विद्यमान पदार्थों का सर्वथा अभाव है, उनका अस्तित्व है ही नहीं। वे पदार्थ अपने अपने रूप में है, किन्तु भव्यजन (पण्डित पुरुष) उन पदार्थों में आसक्त होकर मोहग्रस्त न हो, अनुरक्त होकर विवेक न छोड़ दे, इसलिए जगत् को स्वप्न के समान बताया है। जगत् के सभी पदार्थ उत्पत्तिशील व विनाशशील होकर भी ध्रुव स्वभावी है। ऐसा कोई समय नहीं है कि उन पदार्थों का सर्वथा नाश हो जाये, बल्कि प्रतिसमय पूर्व अवस्था का विनाश और नवीन पर्याय की उत्पत्ति होने का क्रम प्रवर्तमान होते हुए भी वे अपने मौलिक रूप में तदात्मक है।'
इस पर व्यक्त ने अपनी दूसरी शंका इस प्रकार व्यक्त की - __ संसार की समस्त वस्तुएँ सापेक्ष हैं, इस कारण वस्तु की सिद्धि स्वतः, परतः, स्व-पर उभयत्: अथवा इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती। व्यक्त जी वस्तुएँ दो प्रकार की मानते हैं - कार्यरूप तथा कारणरूप। कार्य कारण के आधीन है, क्योंकि कारण के बिना कार्यों की उत्पत्ति नहीं होती। यदि कारण न हो तो किसी को कार्य भी नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार कार्य और कारण ये दोनों स्वतः सिद्ध नहीं है। इस प्रकार उत्पत्ति की चार अवस्थाएँ भी घटित नहीं होती हैं, जैसे कि - (क) तैल स्वतः उत्पन्न नहीं हो सकता, क्योंकि अगर वह अपने से उत्पन्न होता है तो
इसका तात्पर्य है कि वह अपनी उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान है। किन्तु ऐसा नहीं
होता है, क्योंकि कोई वस्तु अपनी उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान कैसे हो सकती है? (ख) तैल परतः उत्पन्न नहीं हो सकता। क्योंकि जो तैल से भिन्न है, वह तैल को
उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि इस प्रकार विरोधी वस्तु से उत्पत्ति मानी जाये तो
1 अणुभूत-दिट्ठचिंतिय-सूय-पयइवियार-देवयाऽणूया।
सिमिणस्स निमित्ताई पुण्णं पावं च नाभावो।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1703 2 विण्णाण मयत्तणओ घड विण्णाणं व सिमिणओ भावो। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1704 3 अव्यक्तमायकिल वस्तुनोऽस्ति, तथैव चान्तं परमाणु भावात्। मध्यं कथं तवंशगंलभेत, तं वैत्स्यतः शून्यमिदं समस्तम्।। महावीर देशना श्लोक 6, पृ. 153
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