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________________ इसी प्रकार माध्यमिक बौद्धों के शून्यवाद में यह बताया गया है कि किसी भी वस्तु का व्यक्तिगत रूप से सद्भाव नहीं है, उनका अस्तित्व उनके उत्पादक कारणों की अपेक्षा से है। दूसरी ओर उपनिषदों में यह भी कहा गया है कि “द्यावा पृथिवी, पृथिवी देवता आपो देवता” आदि वाक्य है जिनसे भूतों का अस्तित्त्व सिद्ध होता है। इस प्रकार विरोधी कथन से व्यक्त के मन में शंका हुई, उस शंका का समाधान श्रमण भगवान महावीर द्वारा विशेषावश्यकभाष्य में इस प्रकार किया गया। भूतों के अस्तित्व पर विचार करने से पहले यह प्रश्न उठता है कि - संशय विद्यमान वस्तुओं का होता है या अविद्यमान वस्तु का? जैसे - स्थाणु व पुरुष के सम्बन्ध में संशय होता है किन्तु आकाश-कुसुम या खर-शृंग के बारे में संशय नहीं होता, तो यह निश्चय है कि संशय वस्तु के सद्भाव में होता है, अभाव में नहीं।' कोई पुष्प को देखकर यह नहीं सोचता कि यह स्थल का है या नभ का?' इस संशय के कारण ही भूतों का अस्तित्व एक बार सिद्ध हो जाता है। संशयादि ज्ञान की पर्याय है, तथा ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञेय से होती है। यदि ज्ञेय नहीं हो तो संशय नहीं हो सकता।' ___ यदि स्थाणु-पुरुष को भी सर्व-शून्य के भीतर लेकर असत् माने तो यह समस्या खड़ी हो सकती है कि वस्तुओं के अभाव से संशय का भी अभाव हो जायेगा। वस्तुओं के अभाव में भी यदि संशय को माने कि स्वप्न में सब वस्तुएं नहीं रहती है फिर भी संशय होता है तो उसका मानना गलत है, क्योंकि स्वप्न में जो संदेह होता है वह पहले अनुभव की गई वस्तु के स्मरण से होता है। स्वप्न के कई निमित्त होते हैं, जैसे - अनुभूत (स्नान, भोजन), दृष्ट (हस्ति आदि पदार्थ), चिन्ता, सुना हुआ विषय, प्रकृति विकार, अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियाँ आदि। इस प्रकार वस्तु का सर्वथा अभाव स्वप्न का निमित्त 1 "मा कुण वियत्त! संसयमसत्ति ण संसयसमुन्भवो जुत्तो। खकुसुम-खरसिगेसु व जुत्तो, सो थाणु-पुरिसेसु।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1697 2 "को वा विसेसहेतु सव्वाभावे वि थाणु-पुरिसेसु। संका ण खपुप्फादिसु, विवज्जयो वा कधण्णं भवे।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1698 3 "जं संसयाद्यो णाणपज्जया तं च णेयसम्बध्यं । सव्वण्णेयाभावे ण संसयो तेण ते जुत्तो।।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1700 4 "संति च्चिय ते भावा, संसयत्तो सोम्म! थाणु पुरिसोव्व।" विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1701 5 सव्वाभावे वि मई संदेहो सिमिणए व्य णो तं च। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1702 216 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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