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विशेषावश्यकभाष्य में इसी प्रसंग को लेकर भगवान महावीर और व्यक्त का संवाद उपस्थित किया गया। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि - व्यक्त की यह शंका दो रूपों में प्रस्तुत की गई। एक बाह्यार्थों की अर्थात् भूतों की कोई सत्ता नहीं है, मात्र चित्त तत्त्व की सत्ता है, वस्तुतः यही विचार आगे जाकर बौद्धदर्शन के विज्ञानवाद का आधार बना। दूसरी ओर जब यह विचार बाह्यार्थों के साथ-साथ चित्त सत्ता का निषेध कर देता है तो वह सर्ववैनाशिकी के रूप में एक नवीन वाद को जन्म देता है जो आगे चलकर बौद्धदर्शन में शून्यवाद के रूप में विकसित हुआ। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि व्यक्त किस प्रकार अपनी शंका को प्रस्तुत करते हैं और महावीर के द्वारा किस प्रकार समाधान किया जाता है।
शून्यवाद समर्थक तर्कों की समीक्षा और उसका विशेषावश्यकभाष्य के प्रकार में निराकरण -
विशेषावश्यकभाष्य के गणधरवाद में 'भूतों का अस्तित्त्व है या नहीं, इस प्रश्न पर चर्चा की गई है। श्रमण भगवान महावीर के समक्ष वेदज्ञ ब्राह्मण व्यक्त आये, जिनके मन में यह शंका थी कि भूतों (जड़ पदार्थों का) अस्तित्त्व है या नहीं?' इस सन्देह के पीछे दो कारण थे - पहला कारण कि वेदों में कहीं वाक्य है - "स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधिरंजसा विधेयः” इसका अर्थ यह किया कि यह सम्पूर्ण जगत् स्वप्न के समान है, उसे ब्रह्मविधि से अर्थात् परमार्थतः जानना चाहिए। जगत् में भूतों जैसा कुछ नहीं है। इस प्रकार उपनिषदों में सभी भूतों के अस्तित्त्व को स्वप्न के समान अयथार्थ बताया है।
जैसे निर्धन पुरुष, स्वप्न में अपने प्रांगण में हाथी-घोड़े, सुवर्ण-मणि-माणिक, दास-दासी आदि सर्व भौतिक सामग्री देखता है, किन्तु वास्तविक में वे सुख-सामग्रियाँ अविद्यमान हैं, वैसे ही यह भूतों का संसार अविद्यमान होने पर भी दृष्टिगोचर हो रहा है, अन्तर इतना है कि वह स्वप्न अल्पकालीन है और यह स्वप्न दीर्घकालीन है। जैसे - ऐन्द्रजालिक (जादूगर) अविद्यमान उद्यान, पत्र-पुष्प दिखाता है और दर्शक इस प्रकार देखते हैं जैसे सब कुछ विद्यमान हो, वैसे ही यह संसार अविद्यमान होते हुए भी दिखाई दे रहा है, किन्तु वस्तुतः यह शून्य है, अतः भूतों का अस्तित्व नहीं है।'
' किं मन्ने अत्थि भूया उदाहु णस्थि ति ससओ तुज्झ, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1889 'भूएसु तुज्झ संका, सुविणय-माओवमाई होज्जत्ति, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1690
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