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पंचम अध्याय भूतों के अस्तित्त्व एवं नास्तित्त्व की समस्या और उसकी समीक्षा
भूमिका
भगवान महावीर और बुद्ध के काल में यह समस्या प्रमुख रुप से चर्चित हो रही थी कि - बाह्यार्थों की सत्ता है या नहीं? ऋग्वेद में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है। यह जगत् सत् से उत्पन्न हुआ या असत् से? जो लोग यह मान रहे थे कि यह जगत् सत् से उत्पन्न हुआ है, वे यह भी मान रहे थे कि पंच महाभूतों और आत्मा की सत्ता है, इस मत का उल्लेख षष्ठआत्मावादी के रुप में हमें सूत्रकृतांगसूत्र में मिलता है, जिनकी स्पष्ट मान्यता थी कि इस जगत् के मूल में पाँच महाभूत और छठा आत्मा अपनी सत्ता रखता है, किन्तु इसके विपरीत दो प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित थी।
एक मान्यता यह थी कि जगत् के मूल में पंचमहाभूतों की सत्ता है और उसी से यह जगत् उत्पन्न हुआ है, परवर्ती दार्शनिकों ने इस विचारधारा को मानने वाले को बाह्यार्थवादी कहा है, इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञाता और मनस् से भिन्न पदार्थ की स्वतः सत्ता है, दूसरे शब्दों में हमारे ज्ञान का विषय यह जो जगत है, वह सत् है।
किन्तु इससे विपरीत कुछ दार्शनिक यह मानते थे कि बाह्यार्थ की कोई सत्ता नहीं है। यह जगत् स्वप्नवत् है। दूसरे शब्दों में केवल चित्त तत्त्व की सत्ता है, जिसे हम बाह्यजगत् कहते हैं, वह चित्त का विकार है।
“स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष" के औपनिषदिक कथन से यह बात सिद्ध होती है। इसी प्रकार 'ब्रह्मसत्यं जगन मिथ्या' अथवा 'सर्वखल्विदं ब्रह्म' यह वचन भी यही सिद्ध करते हैं कि केवल चित्त तत्त्व की सत्ता है, बाह्यार्थों की नहीं। किन्तु दूसरी ओर अनेक औपनिषदिक कथन ऐसे भी मिलते हैं, जिसमें बाह्यार्थों की सत्ता स्वीकार की गई और विशेष रूप से पंचमहाभूतों को दैवी तत्त्व मानकर स्वीकार किया गया।
इन दोनों प्रकार की मान्यताओं के कारण जब सामान्य जन के मन में भी शंका उत्पन्न हो सकती है तो फिर प्रकाण्ड वैदिक पण्डित व्यक्त के मन में भी इस शंका का उत्पन्न होना स्वाभाविक है।।
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