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का है। इस मत से मिलता-जुलता मत 'तज्जीवतच्छरीरवाद' है जो शरीर और आत्मा को एक मानता है। भारत में 'चार्वाक' और पश्चिम में 'थोलिस', 'एनाक्सिमॉडर' आदि जड़वादी भी इस मान्यता के पक्षधर हैं। बौद्धदर्शन इस प्रश्न को अव्याकृत कह देता है। - जैनदर्शन ने इस प्रश्न के समाधानार्थ एक नई स्थापना की - "आत्मा शरीर से बन्धी हुई है, इसलिए वह सर्वथा अमूर्त नहीं है। आत्मा का अस्तित्व या स्वरूप अमूर्त हो सकता है, अतः शरीर और आत्मा का सम्बन्ध भिन्न भी है और अभिन्न भी। जो संसारी आत्माएँ हैं वे शरीर से अभिन्न हैं और जो मुक्त आत्माएँ हैं वे शरीर से भिन्न हैं।"
प्रस्तुत चतुर्थ अध्याय में इसी 'जीव और शरीर के सम्बन्ध को लेकर समीक्षा की गई है। जो देहात्मवादी हैं वे एकान्तरूप से देह को आत्मा मान लेते हैं, या भूतचैतन्यवादी जो भूत-समुदाय से चैतन्य की उत्पत्ति मानते हैं, वे आत्मा के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं, किन्तु शरीर ही यदि जीव हो तो फिर जीवन का कोई उद्देश्य ही नहीं रहेगा। दया, करूणा, मैत्री आदि आत्म-भावनाओं के विकास और सबल बनाने के लिए प्रयत्नशील रहना और दूसरों को उनका उपदेश देना व्यर्थ है तथा इहलोक और परलोक का चिन्तन भी व्यर्थ है। इस दृष्टि से शरीर और जीव को अलग मानना आवश्यक है।
तृतीय गणधर वायुभूति के मन में प्रश्न था कि - आत्मा और शरीर भिन्न हैं या अभिन्न? भगवान महावीर ने कई युक्तियों द्वारा सिद्ध किया कि - आत्मा और शरीर एक नहीं हैं। शंका - चैतन्य भूतों का धर्म है, जैसे - मद्य कई सामग्रियों से युक्त होकर बनती है, उसमें मादकशक्ति आ जाती है, कुछ समय बाद नष्ट हो जाती है, ठीक उसी प्रकार भूतों के सम्मिश्रण से चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है, भूतों के नाश होने पर चैतन्य का नाश हो जाता है। समाधान - जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति नहीं होती, यदि भूतों के संघात में चैतन्य उत्पत्ति होती है तो मृत शरीर में होनी चाहिए। शंका – भूत समुदाय में चैतन्य दृष्टिगत है, जैसे घट-पट आदि में रुपादि गुण विद्यमान
है।
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