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समाधान
प्रत्यक्ष का बाधक आत्म साधक अनुमान होने से प्रत्यक्ष से आत्मा व शरीर की पृथकता सिद्ध है।
अनुमान प्रमाण से आत्मा - शरीर से पृथकता पदार्थ को देखकर स्मरण रखने वाला आत्मा, इन्द्रियों से भिन्न है ।
ज्ञान गुण का आधार होने से, अभिलाषा रूप गुण का आधार होने से, कार्मण शरीर को मानने से एवं सुख-दुःखात्मक अनुभवगुण आदि अनेक अनुमान से यह सिद्ध होता है कि आत्मा और शरीर में पृथकत्व है ।
जैनदर्शन में आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अनेकान्त रूप से स्वीकार किया है। एकान्त रूप से भिन्न मानने पर कर्म सिद्धान्त की व्याख्या संभव नहीं है और धार्मिक साधना भी संभव नहीं है। क्योंकि कर्म भी शरीर से किये जाते हैं और साधना भी । यदि इन दोनों में सम्बन्ध नहीं हो तो आत्मा को शरीर के द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्म का उत्तरदायी नहीं माना जा सकेगा, और यदि एकान्त रूप से अभिन्न माने तो मुक्ति सम्भव नहीं है। तथा भेद - विज्ञान या आत्म-अनात्म का विवेक का कोई मतलब नहीं है। धर्म-ग्रन्थों में देहासक्ति हटाने का उपदेश दिया जाता है वह व्यर्थ हो जायेगा, अतः व्यवहार के स्तर पर शरीर और आत्मा के सहसम्बन्ध अर्थात अभेद को और सैद्धान्तिक दृष्टि से इन दोनों की भिन्नता या भेद मानना आवश्यक है। यही चर्चा प्रस्तुत अध्याय में की गई है।
साथ ही देकार्ते का 'अन्तः क्रियावाद' स्पिनोजा का लाइबनित्ज का पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद को प्रस्तुत किया है।
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'समानान्तरवाद' और
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