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इससे जगत् में हो रहे भौतिक परिवर्तन के मूल में भी मन की सत्ता को मानने पर
सर्वमनसवाद के सिद्धान्त पर पहुंचते हैं, जबकि यह सत्य तथ्य नहीं है। लाइबनित्स की शरीर और मन सम्बन्धी अवधारणा
लाइबनित्स ने शरीर और मन के सम्बन्ध को कार्य कारण के आधार पर समझाया है। इसने देवी सत्ता या सूक्ष्म कारण को अस्वीकार करते हुए यह बतलाया कि - भौतिक शरीर पर किसी अभौतिकतत्त्व का प्रभाव नहीं पड़ता। उसने देकार्ते के द्वैतवाद को माना, किन्तु उसे भिन्न रूप दिया। जैसे - शरीर की क्रियाएं अपने स्वतंत्र नियमों द्वारा होती हैं। शारीरिक कार्य अपने विशिष्ट नियमों और कारणों से होते हैं, वैसे ही मानसिक कार्य भी विशिष्ट नियमों और कारणों से होते हैं। दोनों अपने-अपने कार्य स्वतंत्र रूप से करते हैं। इसका उदाहरण दो घड़ियों से दिया है - दो घड़ियाँ जो ऐसी बनी हैं कि वे समय को बतलाने में सदैव एक सी रहती हैं, यद्यपि दोनों एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करती। दोनों से एक सा समय ज्ञात होता है, यद्यपि दोनों स्वतंत्र हैं। इसी प्रकार मन और शरीर भी स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं, और उनमें जो क्रिया-प्रतिक्रिया का आभास होता है, वह पूर्व स्थापित सामंजस्य के कारण है।
इस प्रकार शरीर और मन (आत्मा) के विषय में दोनों धारणाएँ प्रस्तुत हुई हैं - शरीर और मन भिन्न हैं या अभिन्न?
उपसंहार
धर्म की आराधना का मूल आधार है आत्मा। हमारी आत्मा में शरीर नहीं है, अपितु शरीर में आत्मा है। आत्मा अमूर्त है और शरीर मूर्त है। दार्शनिक जगत् में इसी बात को लेकर एक प्रश्न बहुत चर्चित रहा है - अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध कैसे हो सकता है? आत्मा और शरीर यौगिक हैं, एक मिश्रण है। दोनों साथ-साथ चल रहे हैं, पर यह मिश्रण कब बना और कैसे बना? इस सम्बन्ध की बात बहुत जटिल है।
___ शरीर और आत्मा के सम्बन्ध के बारे में कई मत हैं - सांख्य दर्शन आत्मा को पूर्ण रूप से अमूर्त मानता है। वह उसका शरीर से बिल्कुल सम्बन्ध नहीं मानता। भूत-चैतन्यवादी चार या पाँच भूतों के संघात से चैतन्य की उत्पत्ति मानते हैं तथा इनके नष्ट होने पर चैतन्य का नाश मानते हैं। यह मत अजीतकेशकम्बलिन् के लोकायत मत
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