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शक्ति-संरक्षण के नियम से कठिनाई - देकार्ते के अनुसार पुद्गल न जन्म लेता है न नष्ट होता है न ही घटाया-बढ़ाया जाता है। परन्तु जब मनस् और पुद्गल में क्रिया-प्रतिक्रिया होती है तो क्या पुद्गल में परिवर्तन नहीं होगा? कभी-कभी थोड़े से शारीरिक परिवर्तन से अत्यधिक मानसिक परिवर्तन होता है और कभी थोड़े से मानसिक परिवर्तन से अत्यधिक शारीरिक परिवर्तन होता है। ज्ञानशास्त्रीय कठिनाई - देकार्ते के अनुसार वास्तविक प्रत्यय यथार्थवस्तुओं की प्रतिलिपि है। यदि ऐसा है तो जैसी वस्तुएँ हैं वैसी ही उनकी प्रतिलिपियाँ होनी चाहिये। यदि मानसिक और भौतिक दोनों प्रत्यय अलग-अलग हों, तो मानसिक प्रत्यय को भौतिक वस्तु की सच्ची प्रतिलिपि कैसे कहा जा सकता है? शरीर और मन की कठिनाईयाँ - शरीर और मन के सम्बन्ध की समस्या को सुलझा पाना मुश्किल है, क्योंकि ये दोनों पूरी तरह स्वतंत्र और परस्पर विरोधी लक्षणयुक्त हैं, अतः इनमें सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता।
द्वैतवाद की समीक्षा
द्वैतवाद के विरोध में दिये जाने वाले तर्कों से स्पष्ट है कि यह सिद्धान्त जगत की पूर्णरूप से व्याख्या नहीं कर सकता। चिरकाल से मानव का स्वभाव रहा है कि वह अनेकता में एकता, द्वैतवाद में अद्वैतवाद खोजता है, तथा उसके बिना संतुष्ट नहीं हो सकता। अतः द्वैतवाद सन्तोषजनक नहीं माना जा सकता। यद्यपि सामान्यरूप से अपने अनुभव में द्वैतवाद की भावना देखते हैं, और सर्वत्र द्वैतवाद पाते हैं, परन्तु साथ में अद्वैतवाद की खोज में भी निरन्तर जुटे रहते हैं। अद्वैतवाद स्थापित किये बिना तनाव बना रहता है। परन्तु वास्तव में अद्वैतवाद, एकतत्त्ववाद, द्वैतवाद आदि कोई भी सन्तोषजनक नहीं है। स्पिनोजा का समान्तरवाद
शरीर और मन के सम्बन्ध के विषय में स्पिनोजा समान्तरवाद का सिद्धान्त उपस्थित करता है। वह शरीर को एक पूर्ण और सर्वव्याप्त सत्ता मानता है। उसका मानना है कि चिन्तन और विस्तार एक ही द्रव्य के दो गुण हैं। मन चिन्तन का एक आकार है और शरीर विस्तार का एक आकार है। मन और शरीर एक ही द्रव्य के दो पहलू हैं, इन दोनों का सम्बन्ध ईश्वर से है।
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