________________
2.
7. उपासकदशा 8. अन्तकृतदशा 9. अनुत्तरोपपातिक 10. प्रश्नव्याकरण 11. विपाक, और 12. दृष्टिवाद आगमों का द्वितीय वर्गीकरण देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणवर्ती है। उन्होंने आगमों को अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य - इन दो भागों में विभक्त किया है।' अंगप्रविष्ट - जो गणधर के द्वारा सूत्ररूप में निबद्ध होता है या जो गणधर के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर के द्वारा उपदिष्ट है, उसे अंग प्रविष्ट कहते हैं। अंगबाह्य – जो स्थविर या आचार्यकृत हो, वह अंगबाह्यश्रुत है। निष्कर्षतः जो अंगप्रविष्ट से भिन्न है वह अंगबाह्य है। आर्यरक्षित ने विषय-सादृश्य की दृष्टिकोण से समग्र आगमों को चतुर्विध भागों में विभक्त किया है - 1. चरणकरणानुयोग ___2. धर्माकथानुयोग 3. गणितानुयोग
4. द्रव्यानुयोग व्याख्याक्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप होते हैं - 1. अपृथक्त्वानुयोग
2. पृथक्त्वानुयोग 4. आगमों का सबसे उत्तरवर्ती चतुर्थ वर्गीकरण है -
1. अंग 2. उपांग 3. मूल, और 4. छेद अर्द्धमागधी आगम साहित्य ।
जैन आगम साहित्य की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत है।' अर्द्धमागधी - अर्द्धमागधी का सामान्यतया यह अर्थ है कि वह भाषा, जो शौरसेनी और मागधी बोले जाने वाले क्षेत्र के बीच के भाग में बोली जाती थी। अर्थात् अर्द्धमागधी वह भाषा है, जिसमें मागधी और शौरसेनी दोनों का समन्वित रूप हो। एक अर्थ यह भी है कि जिसमें मागधी के आधे लक्षण मिलते हों, वह अर्द्धमागधी है। अर्द्धमागधी आगम साहित्य श्वेताम्बर शाखा के स्थानकवासी, मूर्तिपूजक और तेरापंथी परम्पराओं को मान्य है। यही कारण है कि आगमों की संख्या भिन्न-भिन्न है। अंगों को सभी स्वीकार करते हैं पर अंगवाह्य सूत्रों में भिन्नता है। आगमों की
। जैन आगम साहित्य, मनन और मीमांसा, देवेन्द्रमुनि, पृ. 12
अद्धभागहीए भासाए धम्ममाइक्खड़, समवायांग सूत्र, पृ. 60
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org