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________________ जो तत्त्व आचार्य परम्परा से वासित होकर आता है, वह आगम है - "आगच्छत्याचार्यपरम्परया वासनाद्वारेणेत्यागमः।” जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है अथवा विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र आगम या श्रुत कहलाता है।' सासिज्जइ जेण तयं सत्थं तं वा विसेसियं नाणं। आगम एव य सत्थं आगमसत्थं तु सुयनाणं ।। – विशेषावश्यक भाष्य।' नियुक्तिकार भद्रबाहु का मन्तव्य है – “तप-नियम रूप ज्ञान वृक्ष के उपर आरूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भव्यात्माओं के बोध के लिए ज्ञानपुष्पों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपट में उन सकल कुसुमों को आत्मसात कर प्रवचन माला गुंथते हैं अर्थात सूत्ररुप में गुंथित करते हैं। आवश्यकनियुक्ति में उल्लेख है कि - "अत्थं भासइ अरहा, सुतं गन्थन्ति गणधरा निउणं" तीर्थंकर केवल अर्थरूप में देशना देते हैं और गणधर उसे सूत्रबद्ध करते हैं। इस प्रकार सर्व परिभाषाओं से स्पष्ट है कि जैनागमों की प्रामाणिकता तीर्थंकरों की वीतरागता एवं सर्वज्ञता (सर्वार्थ साक्षात्कारित्व) के आधार पर है। आगमों का वर्गीकरण जैनागमों का सर्वाधिक प्राचीनतम वर्गीकृत रूप समवायांग में प्राप्त है। वहां आगम साहित्य को पूर्व और अंग के रूप में विभाजित किया है। पूर्व - श्रमण भगवान महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण यह 'पूर्व' कहा गया है। पूर्व 14 हैं। अंग - जैन परम्परा में 'अंग' शब्द का प्रयोग गणिपिटक के अर्थ में प्रयुक्त है, वस्तुतः गणधर (गणि) द्वारा रचित ग्रन्थ 'अंग' कहलाते हैं। 12 अंग हैं - 1. आचारांग 2. सूत्रकृतांग 3. स्थानांग । समवायांग 5. भगवती ज्ञाताधर्मकथा 4. "आगच्छत्याचार्यपरम्परया वासनाद्वारेणेत्यागमः" भाष्यानुसारिणी टीका, पृ. 87 - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 559 आवश्यकनियुक्ति, गाथा 89/90 * आवश्यकनियुक्ति गाथा, 192 समवायांग, समवाय 14 'दुवालसग गणिपिडगे, समवायांग प्रकीर्णक, समवायसूत्र 88 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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